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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/८९

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७२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते उपपत्ति कल्प ग्रहभगण ४अहर्गण _ग्रहभ , भगणशे यहाँ अहर्गण के मध्यम सावनदिन समूह कल्पांदन ककु ककु रूप होने के कारण उस पर से पूर्वोक्तानुपातद्वारा जो भगणादि मध्यम ग्रह आते हैं, वे भी मध्यम वषन्तःपातिस्पष्टसावनयोग सावनान्त बिटुक ही होंगे, =मध्यमसवन, वषन्तःपाति , वषन्तःपतिस्पष्टसावनसं स्त्रष्टसावनयोगसम्बन्धिनाक्षत्र = वर्षान्तःपातिस्पष्टसावनसंख्या + १ नाक्षत्र इसलिए वर्षान्तः पातिष्टसावन सं १ नाक्षत्र. -ना १ ना १ + १ ना+ वर्षान्तःपातिस्पष्टसवनसं वर्षान्तःपातिस्पसा २१६०० बसु वर्षन्तःपातिस्पष्टसावनसं २१६०० कला मध्यगतिक; अतः मध्यमगति वषन्तःपतिस्पष्टसावनस २१६०० असु कलासमासुः वर्षान्तःपातिस्पष्टसावनसं इसलिए मध्यमसा=१ न+मध्यगतिकलासमासु, लेकिन कला समान असु नाडीवृत्त ही में होती है इसलिए उक्त ग्रह नाडीवृत्त ही में चालनीय है, यह सिद्ध हुआ । इसलिए अपने कल्प पठित भगण से पूर्वोक्तानुपात से जो मध्यमग्रह आते हैं, वे क्रान्ति वृत्तीय भुजांशतुल्य नाडी वृत्तीय चाप के प्रप्रबिन्दुक होते हैं अतः 'दशशिरः पुरि मध्यम भास्करे क्षितिज सन्निधिगे सति मध्यम:' भास्कराचार्य कहते हैं, गोल सन्वि बिन्दु से पूर्वाभिमुख चालित समान गति वेगक नाडीवृत्तीय और क्रान्तिवृत्तीय मध्यमाकों में जब नाडीवृत्तीय मध्यमाकं लङ्काक्षितिज में होते हैं तब क्रान्तिवृत्तीय मध्यमाकं पदवश से क्षितिज से ऊपर और नीचे (भुजांश और विषु वांश के अन्तर पर) होते हैं; दोनों ग्रहृदयों के अन्तर को उदयान्तर भास्कराचार्य कहते हैं परमोदयान्तर भी अल्प ही होता है इसलिए भास्कराचार्य ‘क्षितिज सन्निधिगे’ कहते हैं; इस अन्तर (उदयान्तर) को ब्रह्मगुप्त शून्य मानते हैं इसलिए ‘लङ्कायां भास्करोदयिकःकहते हैं यहां भास्कराचार्य का कथन ही ठीक है उदयान्तर नहीं मानना अनुचित है, भास्कराचार्य ने एक उदयान्तर रूप विलक्षण वस्तु दिखलकर अपने अद्भुत पाण्डित्य का परिचय दिया है इस विषय पर ज्योतिषिक लोग निष्पक्ष बुद्धि से विचार करें ॥ ३२ ॥ अब प्रसङ्ग से उदयान्तर के सम्बन्ध में कुछ विचार करते हैं कान्तिवृत्त में जहां पर मध्यम रवि है उसके ऊपर ध्रुवप्रोतवृत्त (निरक्षक्षितिज) करने से नाडीवृत्त में जहाँ लगता है, वहां से गोलसन्धि पर्यन्त नाडीवृत्तीयचाप विषुवांश या मध्यमरविगतिकलोत्पनासु है, नाक्षत्र षष्टि (६०) घटी में मध्यमरविगतिकलोत्पन्नासु को