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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४२

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द्वितीयोऽध्यायः २३ ।।१ ॥११ यस्य च बद्ध प्रथम प्रवृत्तिः प्राधानिकी चेश्वरकारित च। यत्तत्स्मृतं कारणमप्रमेयं ब्रह प्रधानं । प्रकृतिप्रसूतिः आत्मा गुहा योनिरथापि चक्षुः क्षेत्रं तथैवामृतमक्षरं च। शुक्रे तपः सत्त्वमभिप्रकाशी तद्व्यष्टि नित्यं पुरुषं द्वितीयम् तमप्रमेयं पुरुषेण युक्तं स्वयंभुवा लोकपितामहेन । उत्पादकत्वाद्रजसोऽतिरेकात्कालस्य योगान्नियमवधेश्व क्षेत्रज्ञयुक्तान्नियतान्विकारांल्लोकस्य संतानविवृद्धिहेतून् । प्रकृत्यवस्था सुषुवे तथाऽष्टौ संकल्पसत्रेण महेश्वरस्य देवासुरद्रिद्रुमसागराणां (*गन्धर्वयक्षोरगमानुषाणाम् । मनुप्रजेशर्षिपितृद्विजानां पिशाचयक्षोरगराक्षसानाम् ताराग्रहर्क‘निशाचराणां मासतुसंवत्सररात्र्यहनाम् । दिक्कालयोगादियुगायनानां वनौषधीनमपि वरुधां च जलौकसामप्सरसां पशूनां विद्युत्सरिन्मेघविहङ्गमानाम् । यचमगं यद्भुचि यद्वियत्स्थं यत्स्थावरं यत्र यदस्ति किंचित् ।।१२ ॥१३ ॥१४ १५ जिस प्रजा-सृष्टि की ब्रह्मा ने सर्वप्रथम बुद्धिपूर्वक रचना की, जिससे ईश्वर का प्रधान कर्तव्य और प्रेरणा लक्षित होती है, उस प्रकृति-प्रसूति प्रधान ब्रह्म का जिसे अप्रमेय कारण भी कहते है, यहाँ वर्णन है । जो आत्मा, गुहा, योनि एवं चक्षु, क्षेत्र, अमृत, अक्षर शुक्र तप तथा प्रकाशमय सत्त्व है उसकी यहाँ चर्चा है । द्वितीय, नित्य, व्यष्टि पुरुप लोक पितामह स्वयम्भू पुरुष से संयुक्त, रजोगुण की अधिकता और उत्पादकता से काल संयोग तथा नियम के कारण, क्षेत्रज्ञ से संयुक्त, लोक की सन्तान वृद्धि के निमित्तभूत समस्त चिकार तथा आठों प्रकृतियाँ महेश्वर के संकल्प मात्र से उत्पन्न हुई ॥६-१२। देव, असुर, अद्रि; दुम तथा समुद्र को (गन्धर्व, यक्ष, उरग तथा मनुष्य को;) मनु, प्रजापति, ऋषि, पितर तथा द्विजातियों की; पिशच, यक्ष, उरग तथा राक्षसों की; तार, ग्रह सूर्य, नक्षत्र एवं निशाचरों को; मास ऋतु संवरसर, रात्रि तथा दिनों की; दिक्, कालयोग आदि तथा युग और अयनों की, वन की ओषधियों एवं लताओ की, जलचर तथा अप्सराओं की, पशुओं विद्युत् , सरित् . मेघ एवं विहङ्गों की जो कोई सूक्ष्म गति वालेभूमि में रहने वाले, या स्थावर आदि जो कुछ हैं । पर या आकाश धनुश्चिह्नान्तर्गतं नास्ति क. पुस्तके ।