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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४१

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२२ वायुर्मुराणम् ॥२ प्रजापतींल्लोकनमस्कृतांस्तथा स्वयंभुरुद्रप्रभृतीन्महेश्वरान् । भृगुं मरीचिं परमेष्ठिनं मठं रजस्तमोधमैमथापि कश्यपम् वशिष्ठदश्वात्रिपुलस्त्यक्षदं मन्त्रचि विवस्वन्तमथापि च क्रतुम् । मुनिं तथैवाङ्गिरसं प्रजापति प्रणम्य मूर्धन पुलहं च भावतः ॥३ तथैव चु च १)क्रोधनमेकविंशतिं प्रजाविवृद्धयाऽपितकार्यशासनम् । पुरातनानप्यपरांश्च शाश्वतस्तथैव चान्यान्सगणानवस्थितान् ॥४ (*मरैश्च सर्वानखिलानवस्थितां ) स्तथैव चान्यनपे धैर्यशोभिनः । मुनीन्वृहस्पत्युशनःपुरोगमांस्तपःशुभाचारऋषीन्द्यान्वितान् ॥५ प्रणम्य वक्ष्ये कलिपापनाशिनीं प्रजापतेः सृद्धिमिमामनुत्तमाम् । सुरेशदेवर्षिगणैरलंकृतां शुभामतुल्याममस्मृपिप्रियाम् ।६ प्रजापतीनामपि चोल्बणार्चिषं (+विशुद्धाधुअॅशरीरतेजसाम् । तपोभृतां ब्रह्मदिनादिकालिक प्रभूतमविष्कृतपौरुषश्रियम् ) ।७ श्रुतौ स्मृतौ च प्रसृतामुदाहृतां परां पराणामनिलप्रकीर्तिताम्। समासबन्धैर्नियतैर्यथातथं चिशब्दनेनापि मनःप्रहर्षिणीम् ८ समान दीप्तिमान् त्रिलोकी का संहार एवं सृष्टि करने वाले महेश्वर को वार वार नमस्कार है । लोकपूज्य प्रजापतिगण, स्वयम्भू रुद्र आदि महेश्वर, भृगु, मरीचि, परमेष्ठी मनु, रजोगुण एवं तमोगुण धर्म वाले कश्यप, वशिष्ठ, दक्ष, अत्रि, पुलस्त्य, कर्दम, रुचि, विवस्वान्, एवं तु तथा मुनि अङ्गिरा और प्रजापति को भावपूर्वक द्वािर से प्रणाम करके, इक्कीस क्रोधनो जिन्हे प्रजा को वृद्धि के लिये कार्यशासन दे दिया गया है एवं अन्य पुरातन शाश्वतों, इतर गणो के साथ वर्तमान समस्त मनुओ, अन्य धैर्यशील, एवं तपस्या और शुभ आचारयुक्त बृहस्पति शुक्र प्रभृति मुनियो का अभिवादन कर कवि के पापो को नाश करने वाली अनुत्तमा प्रजापति की सृष्टि का वर्णन कर रहा है, जो सृष्टि, सुरेश, देवो और ऋषियो के संघ से धूपित, शुभ, अतुल्य, अमद एवं ऋषियों को प्रिय है ।१-६ जिसमे प्रदीप्त कान्ति वाले प्रजापतियों, विशुद्ध वाणी, बुद्धि और तेजधारी तपस्यियों और ब्रह्मा के दिन आदि कल का वर्णन तथा पूर्णरूप से पौरुष एवम् श्रो का विज्ञापन है, जो श्रुति और स्मृति में विस्तार से कही गई है, जिस उत्तमं से भी उत्तम सृष्टि-कथा को वायुदेव ने कहा है, और जो नियत समास वन्धो एवं विविध शब्द से चित्त को प्रफुल्लित करने वाली है ७ ८॥

  • धनुश्रिर्दान्तशैतग्रन्थो घ. पुस्तके नास्ति । + धनुश्चिह्नान्तर्गतं नास्ति क. पुस्तके ।