१६ ४ ] धम्क्षपदं { २५:२ अनुवाद-~है मिछु ! इस नवको उलीच, उछीचने पर ( यह ) तुम्हारे लिये ही हो जायेगी। राग और हेपको पैदल, फिर तुम निर्वाणको प्राप्त होगे । ३७०–पंच विन्दे पञ्च जहे पदवुत्तरि भावये । पञ्च सञ्जातिगो भिक्खू ओोषतिण्णगेति युज्वति ॥११॥ (पंच छिन्धि पंच जहीहि पंचोत्तरं भावय । पंचखेगातिगो भिक्षुः, 'ओघतीर्ण' इत्युच्यते ॥१) अनुवाद--( जो रूप, राग, मान, उबतपना और अथिया इन ) ॐ पाँचको छेदन करे, ( जो निस्य आस्माकी कल्पना, शन्नेह, शीलवत पर अधिक जोरभगोमें राण, और प्रसिहिंसा इन ) पाँचक्र त्याग फरे; उपरान्त ( जो अब, जीर्य, स्टूति, समाधि और अभ्झा) इन पंचको भावना फरे ( जो, राग, दोप, मोह, मान, और शठी धारणा हुन ) चके संसर्गको अतिक्रमण फर चुका है, ( ग्रह काम, भार टि और अबिथारूपी ) ओघो=पातं )से उशीर्ण हुआ कहा जाता है । ३७१–आय भिक्खू । च पामहे। मा मा ते कामगुणे भमस्थं चित्तं । या लोहलं गिली पमत्तो मा कंदी इखमिदन्ति दय्मानो ॥ १३॥ (ध्याय भिन्न ! मा च प्रमादः मा में कामगुणे प्रमखु चित्रम् ।
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