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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१६६

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२४l६८ ॥ तण्हावग्ग [ ५५५ अनुवादओ प्राणी सान्वेइसे ' मथित, तीच रागसे युक्त सुन्दर ही सुन्दरको देखने वाला है, उसकी तृष्णा और भी अधिक ' यती है, वह (अपनेफिट्) औरभी पूढ घन्धन सय्यार करता है। ३१०विकूपसमे च यो रतो असुभं भावयति सदा सती । एस खो व्यनिकाहिनी एसच्चेज्जति मारबन्धनं ॥ १७॥ (वितकपशमे च यो स्तो शुभंभावयते सदा संस्मृतः। एष खलु । ध्यन्तीकरिष्यति पप छेत्स्यति मारबन्धनम् ॥१७॥ अनुवाद--सन्देहके क्षान्त फरनेमें बौ रत है, सबैत र ( जो ) अशुभ (छवियाले अन्धेरे पहल) की भी सवा भावना करता है। यह मात्रै बन्धनलको कि करेगा, बिनाश करेगा। अतबन ३११निर्वहतो असन्तासी वीतयहो भनझणो । उच्छिल भवसल्लानि अन्तिमो'थै समुस्सयो ॥१८॥ ( निष्ठांगतोऽसंत्रसी वीततृष्णोऽनंगणः । उत्सृज्य भवशल्यानि, अतिसोऽयं भुङ्कयः ॥१८) अनुवाद--जिंखले ( पापघ्षय ) समाप्त हो गये , जो भ्रास-उत्पादक नहीं , जो तृणारहित और मलरहित है, वह भवकै शल्योको उखाडेगा, यह उसका अंतिम दैदी है।