५६ ] धम्मपदं [ २१६ ( थे रागरका अनुपतन्ति स्रोतः स्वयंकृतं मर्कटक इव जालम्। एतदपि छित्वा भजन्ति धीरा अनपेक्षिणः सर्वदुःखं प्रहाय ॥१४॥ अनुवाद—जो रागमें रक , वह जैसे मक़ी अपने यनायै आख्में पड़ती है, ( वैसे ही ) अपने बनाये, नोतमें पड़ते , और ( पुरुष ) इख (स्रोत )को भी छेद कर सारे इलोंको द्व आकांक्षा रहित हो चल देते हैं । राजगृह ( वेणुवन ) उगमसेन ( १ ) ३४८-झुड़ पुरे भुञ्च पच्यतो मन्के मुञ्च भवस पारणे । सञ्चत्य विमुत्तमानसो न पुन जातिनरं उपेहिसि ॥११॥ (मुंच पुरो विपक्ष मध्ये मुंच भवस्य पारगः। सर्वत्र विमुकमानसो न पुनः जातिजरे उपॅपि ॥१५) अनुवादआगे पीछे और मध्य ( सभी वस्तुओंको ) त्याग दे, (और उन्हें छोड) भव(सागर)के पार हो जाओ; जिसका मन चारों ओरमे सुरू हो गया, (ब) फिर जन्म और जरा को माप्त नहीं होता । ( शुक्ल ) पशुगर पटि ३४६ -वितरूपमयितम्स नन्तुनो तिवरागम्ससुभानुपसिनो। भिथ्यो ताहा पनातिएनो खोट करोति पन्धनं ॥१६॥ (घिनर्कश्रमथिनम्य न्नः तमगम्य शुभाऽनुदर्शिनः । भूयः दृष्णा प्रवर्द्धन र रगलु रथं करोति यन्धनम् ॥१३) चतवन
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