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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१४१

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३०] धम्मपदं [ १०७ अनुवाद दूसरेतो दुःख वैकर जो अपने लिये सुख चाहता है बैरके संसर्गमें पड़कर, वह बैरैसें नहीं छूटता। भाषियनगर ( जातियावन ) भद्रिय ( सिद्ध) २६२-थं हि किचं तदपविद्ध अचिं पन कयिरति । उनलानं पमज्ञानं तेने बदन्ति आसना ॥३॥ (यद्धि कृत्यं तद् अपविद्ध, अछट्टै पुनः । उन्मलानां प्रमत्तानां तेषां यद्भन्त आस्रवः ॥I) २६ ३-पेसक्व सुसमारबा निचं कायगता सति । अचिन्ते न सेवन्ति किम्चे सातच्चकारिनो । सतानं सम्पमानानं अन्यं गच्छन्ति आवा ॥४॥ (येषाज्व सुसमारब्धा नित्यं कायगता श्रुतिः । अकृत्यं ते न सेवन्ते कूल्यै सातत्यकारिणः । स्मरतां सम्प्रज्ञानानां अस्तं गच्छन्त्यास्रवाः ॥॥ ) अनुवाद—जो काव्य है, उसे (तो ब३धौता है, जो आकर्तव्य है वसे करता है, ऐसे धड़े मकवाळे प्रसायिके आतंत्र (=चित्समछ) धड़ते हैं। जिन्हें कायामें ( क्षणभचुरता, मछिनता आदि घोष सम्यन्धी ) स्मृति तस्यार रहती है, वह अतंर्यको नहीं करते, और कर्तब्यके निरन्तर करनेवाले होते हैं। जो स्टूति, और सम्भजन्य (=चेतपन)को रखनेवाले होते हैं, उनके आस्रव अख हो जाते हैं। ॐ सताम्।