पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२५९

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१३५० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः । सिद्धान्तशेखरै “राश्यष्टभागेषु विधाय लाञ्छनान् सन्धेः पदानां तदनु द्वयो धैयोः। निवध्य सूत्राणि परस्परं तयोः क्रमात् क्रमज्या शकलानि तद्दलम् । जीवा दलानां वित्राणि यानि ज्याखण्डकानीह भवन्ति तानि । व्यस्तानि वान्त्यादिषुवत् स्थितानि भचक्रषड्गोंऽशधनुर्बलस्य ।” इति सर्वथैवाऽऽचायक्तमेव श्लोकान्तरे णोक्त श्रीपतिना । भास्करोऽप्यमुमेवाशयं किञ्चिद्विशदीकृत्य इष्टाङ्गुल व्यास दलेन वृत्तं कार्यं दिगॐ भलवाङ्कितं च । ज्यासंख्ययाप्ता नवतेर्लवा ये तदाद्यजीबा धनुरेतदेव । द्वित्र्यादिनिघ्नं तदनन्तराणां चापे तु दत्वोभयतो दिगङ्गात् । ज्ञेयं तदग्रद्वयवद्धरज्जोरधं ज्यकाधं निखिलानि चैवम् । ज्याचापमध्ये खलुवाणरूपा स्यादुत्क्रमज्याऽत्र विलोमखण्डैः ।।” एवमाह पूर्व पठिताः क्रमज्या उत्क्रमज्याश्च कथमानीयन्ते इत्येतदर्थमियमुपपत्तिंरेव ज्यासाधनस्य । त्रिज्यादि कल्पनयाऽनेन विधिना ज्यार्थानां प्रमाणान्यनेतुशक्यन्त एवेति ॥१७१८। अब ज्या प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है। उसमें पहले ज्याखण्डानयन कहते हैं। हि. भा-इष्ट त्रिज्या से वृत्त बना कर लम्बरूप दोनों व्यासों से वृत्त को चार भाग करने से चार पद होते हैं । उसमें किसी पद सन्धि से अठारह सौ कलाओं के अष्टांश २२५ दो सौ पचीस कला तुल्य चाप को क्रम से और विलोम से अर्थात् दोनों तरफ से देकर दोनों के अग्न में सूत्र को बाँध देना चाहिए । एवं ह्विगुणित दो सौ पचीस कला को पद सन्धि से दोनों तरफ से देकर दोनों के अग्र में सूत्र को बाँध देना चाहिए । इस तरह दो दो के अग्न में बाँधे हुए सूत्र पूर्णज्याएं होती हैं । उनके आधे चौबीस ज्याधं (अर्धज्य) होते हैं। ज्याघ के अन्तर ज्याखण्ड होते हैं । उन्हीं को अन्त्य से व्यस्त (उल्टा) स्थापन करना । तब क्रमज्याखण्ड अथवा शरखण्ड होते हैं । उन दोनों खण्डों (क्रमज्या खण्ड औरउत्क्रमज्याखण्ड) से चाप साधन करना चाहिए । उपपत्ति । सिद्धान्तशेखर में ‘राश्यष्ट भागेषु विधाय लाञ्छनान् सन्धेः पदानांइत्यादि संस्कृतो पपत्ति में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने आचार्योंक्त ही को सर्वथा श्लोकान्तर से कहा है । भास्कराचार्य भी इसी आशय को कुछ विशद कर ‘इष्टाङ्गुलव्यासदलेन वृत्तं कायं दिमङ्ग भलवाङ्कितं च' इत्यादि श्लोकों से इस तरह कहते हैं। क्रमज्याएं और उत्क्रमज्याएं कैसे लायी जाती हैं इसके लिये ज्यासाधन की यही उपपत्ति है त्रिज्यादि कल्पना कर इसी विधि से ज्याघों के प्रमाण ला सकते हैं इति ॥१७-१८