अनित्य में अनित्य होता है (आश्रय के नाश से आश्रित का नाश अवश्यम्भावी है) ।
नित्ये नित्यम् ॥ १९ ॥
नित्य में नित्य होता है ( आश्रय के वना रहन से परि माण नष्ट नहीं होता है ) ।
नित्यं परिमण्डलम् ॥ २० ॥
नित्य है पारिमण्डल (परमाणु)
अविद्या च विद्या लिङ्गम् ॥ २१ ॥
अयथार्थ प्रतीति यथार्थ प्रतीति का चिन्ह होती है।
व्या-रस्सी में सर्प की अयथार्थे प्रतीति तभी होती है, जब यथार्थ सर्प भी है। इसी तरह आमले आदि में जो अणुत्व इस्वत्व की प्रतीति गौणी है, वह तभी घट सकती है, जब मुख्य अणुत्व इस्वत्व भी हों, वह मुख्य अणुत्व इस्वत्व परमाणु में है अन्यत्र गौण हैं।
विभवान्महाना काशस्तथा चात्मा ॥२२॥
विभु होने से महान् है आकाशा, वैसे आत्मा है ।
व्या-जहां कई शब्द उत्पन्न होता है, सर्वत्र आकाश कारण है, इस लिए आकाशा विभु है, सारे परिच्छिन्न द्रव्यों के साथ मिला हुआ है. इसी लिए महान् है । पृथिवी आदि में जो महत्व है.वह सातिशय है, आकाश में निरतिशय है. इस लिए ' वह परम अणु की नाई परम महान् है, ऐसे ही आत्मा है ।
तदभावादणु मनः ॥ २३ ॥
उस के अभाव से (अर्थात चिभुत्व के अभाव से ) अणु