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अ. १ आ. १ सू. ८

अन्दर दूसरी गति नहीं, किन्तु द्रव्य में ही पहली गति से दूसरी विलक्षण गति वतलाई है। और जैसे लाल है और गृढा लाल है, यहां गूढ़ता पहली लाली-में और लाली नहीं, किन्तु द्रव्य में ही पडली लाली से दूसरी विलक्षण लाली बतलाई है। इसी मकार अणुतर और महत्तर आदि से भी द्रव्य में ही विलक्षण अणुत्व और विलक्षण महत्व बोध होता है । अणुत्व में अणु त्वान्तर और महत्व में यहत्त्वान्तर नहीं ।

अणुत्वमहत्वाभ्यां कर्मगुणाश्च व्याख्याताः १६

अणुत्व और महत्व से कर्म और गुण व्याख्या किये गए ( अर्थात् छोटे कर्म वड़े कर्म, छोटे गुण वड़े गुण इत्यादि व्यव हार से जो कम और गुणों में अणुत्व और महत्व की प्रतीति होती है, वह भी गौणी है । क्योंकि अणुत्व और महत्त्व की नाई कर्म और गुणों में अणुत्व महत्त्व नहीं रहते ) ।..

संस-अणुत्व महत्व का पूरा वर्णन करके ततुल्यता हस्वत्व दीर्घत्व में दिखलाते है

एतेनदीर्घत्व इस्वत्वे व्याख्याते ॥ १७॥

इस स दीर्घत्व हस्चत्व छ्याख्या किये गए ।

व्या-जैसे अणु हैं महत् है, इस व्यहार मे अणुत्व महत्व की िसद्धि है, वैसे दीर्घ है, हस्व है, इस व्यवहार से दीर्घव इस्वत्व की सिद्धि होती है, और तद्वत् ही यह इस से दीर्घ है, इस से इस्व है, इत्यादि सापेक्ष व्यवहार की सिद्धि होती है। सं-सो यह चारों प्रकार का परिमाण

अनित्येऽनित्यम् ॥ १८ ॥