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अ. १ आ. १ सू. ८

है मन (देखेो पूर्व ३ । २ । १.)

सै-दिशा और काल का भी परम महतू परिमाण घतलाते है

गुणैर्दिग् व्यायाता ॥ २४ ॥

गुणों मे दिशा व्याख्या की गई है (परे वरे का व्यव हार सर्वत्र होने से दिशा भी विभ्वी है, अनएव परम महत्। परिमाण वाली है) ।

कारणं कालः ॥ २५ ॥

( वर्तमान, भूत, भविष्यत् व्यवहार के ) कारण में काल नाम है (और यह व्यवहार एक ही समय सर्वत्र होता है, इम लिए काल भी परम महद परिमाण वाला है ।

सप्तम अण्याय, द्वितीय आह्निक ।

संस-महत परिमाण वाले में संख्या आदि प्रन्यक्ष होते हैं, इस लिए परिमाण निरूपण के अनन्तर संख्या आदि का निरूपण करते है .

रूपरसगन्धस्पर्श व्यतिरेकादर्थान्तर मेकत्वम् ॥१॥

रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के अभाव मे अलग पदार्थ है एकत्व व्या-जहां रूप रस गन्ध स्पर्श नहीं होते, चहाँ भी एकत्व की प्रतीतिहोती है, जैसे आकाश एक है, ईश्वर एक है,इत्यादि इस से सिद्ध है, कि एकत्व सूप रस गन्ध स्पर्श से एक अलग पदार्थ है ।

तथा पृथत्वम् ॥ २ ॥

(जैसेस यह एकत्व है) वैसे पृथक भी (रूपाद से भिन्न पदार्थ है। क्योंकि रूपादि से शून्यों में भी ‘आकाश काल से पृथक् है' ऐसी प्रतीति होती है।