सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं ३.२६
विषयः योज्यताम्जातवेदा अग्नि व हवि
[सम्पाद्यताम्]इस बात का स्पष्टीकरण करने के लिए यह ध्यान में रखना होगा कि उक्त मन्त्र के पूर्व ही अग्नि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि मैं जन्म के द्वारा जातवेद हूं, घृत मेरा चक्षु है, अमृत मेरा मुख है और मैं रजस् का विविधरूप में निर्माण करने वाला त्रिधातु अर्क, अजस्र धर्म हूं और मेरा नाम हवि है-
अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं चक्षुरमृतं म आसन्।
अर्कस्त्रि धातु रजसो विमानोऽजस्रो धर्मो हविरस्मि नाम।। [35]
यहां जिस अग्नि का उल्लेख है, वह वही जातवेदस है, जिसे हम पहले ही अग्नि, इन्द्र और सोम की संयुक्त इकाई के रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। अतः इस जातवेदस् के द्वारा सोम को उत्पन्न करना कोई आश्चर्य की बात नहीं: इसी दृष्टि से सोम को अग्नि[36] अथवा अर्चिवत् अग्नि[37] कहकर सम्बोधित किया गया है और उससे प्रार्थना की गई है कि वह अपने ब्रह्मसवों द्वारा (ब्रह्मसवैः) हमें पवित्र करें। यहां जिन ब्रह्मसवों का उल्लेख है, वे ही दो पूर्वाद्धृत मन्त्रों में स्वधायें हैं, जिनके द्वारा अग्नि को ‘वर्षिष्ठं रत्नं’ की सृष्टि करने वाला कहा गया है। ब्रह्म और स्वधा दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं। अतः मूलाधार से उत्तरोत्तर उठती हुई प्राणाग्नि अपने में ब्रह्म के जिस उत्तरोत्तर स्वः को ग्रहण करता है, वही उसका ब्रह्मसव अथवा स्वधा है। इस प्रकार अन्नमय कोश से ऊर्ध्वगामी होकर विभिन्न कोशों की दृष्टि से अग्नि के अनेक ब्रह्मसव अथवा स्वधाएं कही जा सकती हैं, जिनके द्वारा अन्ततोगत्वा इन्दुः रूपी ‘वर्षिष्ठं रत्नं’ की सृष्टि हो जाती है। यहां यह शंका हो सकती है कि जब जातवेदस् अग्नि को सोम का जनक मानने में उसे विज्ञानमय स्तर के इन्द्र, अग्नि ओर सोम की संयुक्त इकाई कहा गया, तो उससे पूर्व वह उक्त ब्रह्म अथवा स्वधा नामक सोम की सृष्टि कैसे कर सकता है? इसका निराकरण वेद ने स्वयं वैश्वानर अग्नि की कल्पना द्वारा कर दिया है। उक्त वर्षिष्ठ रत्न की सृष्टि के प्रसंग में जिस मन्त्र को उद्धृत किया गया है, वह वस्तुतः वैश्वानर अग्नि का है। यह सूक्त अपने प्रथम मन्त्र में मनसा ज्ञातव्य, स्वर्विद, सुदानु, अनुसत्य वैश्वानर अग्नि का उल्लेख करता है। उसी को दूसरे मन्त्र में शुभ्र, मातरिश्वा तथा बृहस्पति अतिथि आदि के रूप में भी स्मरण करता है। तीसरे मन्त्र में यही अग्नि प्रत्येक ध्यानयोग के प्रयास में (युग-युग) अधिकाधिक प्रज्ज्वलित होता है और अन्त में अमृतों में जागरूक होकर वही उक्त वर्षिष्ठं रत्न प्रदान करता है। चौथे मन्त्र में इसी अग्नि के अनेक रूपान्तरों को विश्ववेदसः मारुतः अग्नयः’ कहा गया है और पांचवे में फिर ‘अग्निश्रियः मरुतः विश्वकृष्टयः’ कहकर , छठे मन्त्र में मरुतो के प्रत्येक व्रात (समूह) और गण से अग्नि के उस तेज की कामना की गई है, जिसे उसी मन्त्र में ‘मरुताम् ओजः’ भी कहा गया है। सातवें मन्त्र में यही वैश्वानर अग्नि अपने ‘अग्निरस्मि जातवेदा’ की घोषणा करता है, जिसके चक्षु को आनन्दमय स्तर का घृत नामक उदक और मुख को उसी स्तर का अमृत नामक उदक बतलाया गया है। इस सबका अभिप्राय यह है कि विज्ञानमय स्तर पर इन्द्र, अग्नि और सोम की जिस संयुक्त इकाई को जातवेदा कहा जाता है, वही वस्तुतः मानसिक स्तर पर मनसा ज्ञातव्य वैश्वानर है, जिसकी विभिन्न रश्मियां मरुद्गणों के रूप में प्रस्फुटित होने लगती हैं। इसी दृष्टि से, उपर्युक्त सूक्त का उपसंहार करते हुए अग्नि के ‘शतधारम् अक्षीयमाणं विपश्चितम् उत्सम्’ रूप को प्रस्तुत करते हुए, उसे सब अभिव्यक्तियों का पिता तथा सत्यवाक् कहा गया है। दूसरे शब्दों में, मानसिक स्तर पर जो मरुतों के विभिन्न गणों के रूप में प्रकट होने वाला वैश्वानर अग्नि था, वही अन्ततोगत्वा विज्ञानमयकोश में पहुंचकर शतधार उत्स कहे जाने वाले इन्दु अथवा सोम को प्रस्तुत करने वाला जातवेदस् अग्नि बन गया।
हम देख चुके हैं कि यही जातवेदस् अपने को हवि कहता है। सामान्यतः हवि को द्रव्य-यज्ञ की आहुति-सामग्री के रूप में ही ग्रहण किया जाता है, परन्तु स्वयं वेद में उसके एक आध्यात्मिक तत्त्व होने के प्रमाण विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए, एक मन्त्र में देवों के लिए चेतनहवि की सृष्टि का उल्लेख है।[38] आपः देवी से प्रार्थना की जाती है कि वह अहंबुद्धि, मन तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय रूपी सिन्धुओं को क्रियात्मक हवि प्रदान करे।[39] मन, बुद्धि आदि शाश्वत तत्वों से विभिन्न देवों को दी जाने वाली जो हवि अग्नि के लिए ही मानी जाती है, वह भी कोई आध्यात्मिक तत्व ही होना चाहिए।[40] अग्नि मानवी भक्त के लिए जिस बृहद्भा हवि को धारण करता है, वह भी आन्तरिक ज्योति ही प्रतीत होता है।[41] इसी प्रकार हवि के लिए प्रयुक्त ब्रह्मवाहः[42] सत्यराधा तथा त्रिधासमक्तं[43] जैसे विशेषण भी उसी आध्यात्मिक हवि के लिए उपयुक्त लगते हैं, जिसे बुद्धियों द्वारा (धीभिः) उत्पन्न किया जाता है।[44] ब्रह्ममणस्पति को सम्बेधित करते हुए, वृत्रवध के लिए मन को भद्र करने हेतु तथा हवि तैयार करने के लिए कहा जाता है, तो भी हवि को किसी भौतिक अर्थ में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि वृत्र स्वयं हमारा अहंकार नामक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसका वध किसी आध्यात्मिक साधन के द्वारा ही हो सकता है।[45] शक्तिदाता अग्नि देवजन्मों को जानने के लिए जिस हवि को उत्पन करता है,[46] वह भी क्या कोई भौतिक द्रव्य हो सकता है? इसी प्रकार दक्षिणा दिशा को जाने वाली वाजशक्ति से प्राची तथा घृताची कही जाने वाली हवि के स्वरूप को भी तभी समझा जा सकता है, जब इसके प्रतीकवादी अर्थ को समझकर उसे आनन्दमयकोश के घृतरूपी आनन्द की ओर जाने वाली और उससे दक्षतायुक्त होने वाली आध्यात्मिक शक्ति के रूप में ग्रहण किया जाये।[47] जातवेदा अग्नि के लिए, जिस पुरोडाश को हवि[48] के रूप में दिया जाता है, वह ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार मनुष्य का मस्तिष्क है।[49] इसीलिए उक्त मन्त्र में जातवेदा अग्नि को धियावसु कह कर सम्बोधित किया जाता है। हृदय द्वारा निर्मित हवि (ऋ ६, १६, ४७)[50] तथा हवियों में वन्दनीय हवि (ऋ ९, ७, २)[51] और देवों के लिए उत्तम हवि (ऋ ९, ६७, २८)[52] जैसे उल्लेख भी उसी आनन्दरस रूपी सोम की ओर संकेत करते प्रतीत होते हैं, जिसको स्पष्टतः उत्तम हवि कहा जाता है। जिस हवि को शतधार वायु, अर्क, तथा स्वर्विद कहा जाता है और जो सप्तमातरदक्षिणा का दोहन करने में सहायक हो सकती है, वह भी ऐसे दक्षता होनी चाहिए, जो अहंबुद्धि और मन सहित पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के सशक्त होने से प्राप्त होती है ( ऋ १०, १०७, ४)[53] जिस हवि को उरु अन्तरिक्ष, वननीय प्रकाश, स्वः तथा सोम कहा जा सकता है [54] और जिसका आह्वान श्रद्धा द्वारा होता है[55], वह भी निस्सन्देह वही उत्त्म हवि कहलाने वाला आनन्दरस रूपी सोम ही हो सकती है। इसी प्रकार वेदों से अनेक ऐसे मन्त्र उद्धृत किये जा सकते हैं जो हवि के आध्यात्मिक स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। Puranastudy (सम्भाषणम्) ०६:१८, १ मे २०२४ (UTC)