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सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १.१३९

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विषयः योज्यताम्
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उदकनामों में पदनाम

[सम्पाद्यताम्]

उदकनामों में पदनाम

हम पहले ही कह चुके हैं कि भाष्यकारों ने उदक शब्द को सोम के अर्थ में भी ग्रहण किया है। अतः यह स्वाभाविक है कि सोमवाचक इन्दुः शब्द भी उदकनामों की सूची में है। इन्दुः शब्द उदकनामों के अतिरिक्त पदनामों में भी परिगणित है। पदनामों में इन्दु के साथ ‘सोम’ भी सम्मिलित है। इन्दुः के साथ अन्य उदकनामों में बर्हि, अहिः, आपः, ईम्, जामिः, पवित्रम् और अरिरिन्दानि का प्रयोग पूरे वैदिक साहित्य में केवल एक बार ऋ १,१३९ मे हुआ है। इस सूक्त में प्रयुक्त अररिन्दानि और सद्मानि दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं। सायण ने ‘आपोमयः प्राणाः (छांउ ६,५,४) को उद्धृत करते हुए ‘अरिरिन्दानि सद्मानि का अर्थ चेष्टाप्रदायक उदक (प्राण) किया है। इन्हीं प्राणोंदकों के लिए मन्त्र ६ में ‘इन्दवः’ शब्द प्रयुक्त है, जो स्वयं उदकनाम होने के साथ-साथ पदनाम भी है। वृषन् इन्द्र को आनन्दित करने वाले होने से, इन ‘इन्दवः’ को वृषपानासः कहा गया है। सुक्रतु (शोभनकर्मा) साधक इन चेष्टाप्रद प्राणों को धारण करता है और साथ ही दूर से प्राप्त एक नाद को भी अपने भीतर ग्रहण करता है। यह नाद वही है, जो मन्त्र ८ में हमारे भीतर मरुतों द्वारा धारण किये जाते हुए प्रत्येक युग (ध्यान-प्रयास) में नवीनता लिए हुए घोष करता है। मन्त्र ९ के अनुसार साधक का यह जन्म (जनुषं) है, जिसके जानकार दध्यङ्, पूर्वङ्गिरा, प्रियमेध, कण्व, अत्रि तथ मनु हैं। अतः नाद द्वारा घोषित यह जन्म (जनुषं) वस्तुतः इन सबका पद (चेतनास्तर) है, जिससे साधक इन्द्राग्नि नामक देवमिथुन को समर्पित होता है। इन्द्राग्नि को समर्पित होने से पूर्व, प्रथम प्रथम मन्त्र में ऋषि साधक के सामने अग्नि को ‘धी’ द्वारा धारण करने तथा उस क्रिया के नाद (शब्द) को श्रवण करने का प्रस्ताव करता है, जो वासनारहित केन्द्र (विवस्वति नाभा) में सम्यक् रूपेण प्राप्त होती है। मन्त्र ७ में, यही वाक् अंगिराओं को प्रदत्त धेनु के रूप में कल्पित हुई है। इससे पूर्व, मन्त्र तीन में, आयु-प्राणों (आयवः) ने एक नाद इस प्रकार से किया कि मानों वे अश्विनौ को सुना रहे हों। यह सब तब होता है, जब मित्रावरुण ‘ऋत’ नाम उदकप्राण पर अधिष्ठित होकर अपने और दक्ष के मन्यु द्वारा अनृत का आदान कर लेते हैं और सर्व नामक उदकों में मित्रवरुण का वह हिरण्ययस्वरूप दिखाई पड़ता है, जिसे ध्यानप्रयासों (धीभिः) के माध्यम से मन तथा आन्तरिक सोमीय चक्षुओं द्वारा देखा जा सकता है।

इन्दु और इन्दवः

इस सूक्त का सारांश यह है कि अरिरिन्दानि शब्द का प्रयोग उन चेष्टाप्रदायक प्राणोंदकों के लिए हुआ है, जो एक अतीन्द्रिय नाद से जुड़े हुए हैं, परन्तु जिनको साधना के फलस्वरूप मन द्वारा भी धारण किया जा सकता है। इन्हीं प्राणोदकों के लिए वेद में इन्दवः शब्द भी प्रयुक्त हुआ है, जो प्रायः सोमासः विशेषण से युक्त होकर अथवा अलग से (स्वयं, स्वतन्त्र रूप से) भी सोम बिन्दुओं का वाचक होता है। ये इन्दवः अहंबुद्धि, मन और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के रूप में कल्पित सप्त सिन्धुओं के पद से सम्बन्धित है, परन्तु इस स्तर पर प्रश्न होता है कि वे अपने मूल अद्वैत रूप (स्वं वव्रिं) को कहां रख देते हैं  ? यहां इन्दवः के जिस स्वरूप की ओर संकेत किया गया है, उसी का वाचक एकवचन शब्द इन्दुः है, जिसके अन्तर्गत सभी इन्दवः धी (अतीन्द्रिय बुद्धि) के द्वारा एक ही में संयुक्त कर दिये जाते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि इन्दुः शब्द को जब पदनाम कहा जाता है, तो उसका सम्बन्ध दो भिन्न प्रकार के पदों से होता है। इनमें से एक तो अतीन्द्रिय तथा अतिमानिसिक चेतना का स्तर है, जिसमें इन्दुः शब्द एकवचन में प्रयुक्त होता है। इससे भिन्न पद मानसिक स्तर की चेतना है, जहाँ इन्दवः बहुवचन रूप में प्रयुक्त है। एक दूसरे पद अथवा स्तर के सोम को शरीररूपी पुर से सम्बन्ध रखने के कारण ‘पौर’ कहा जाता है, जिसको पीने के लिए जहां इन्द्र से बार-बार आग्रह किया जाता है, वहीं सोम (इन्दु) से इन्द्र को तृप्त करने के लिए प्रार्थना की जाती है। पौर स्तर के इन्दवः मनुष्य व्यक्तित्व के निचले स्तर से उठते हुए ऊपर की ओर जाते हैं। अतः इनको ‘उद्भिदः’ कहा जाता है, जिनके लिए वृषपानासः विशेषण प्रयुक्त होता है, क्योंकि वे जिस इन्द्र के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, वह ऊपर से आनन्दवृष्टि करने वाला वृषन् इन्द्र है। ये इन्द्रवः नामक प्राणोदक जब ‘सत्पति’ इन्द्र के निवास को पहुंचते हैं, तो वे अपनी धवलता के कारण ‘चन्द्र इन्दव’ कहे जाते हैं। यही वरेण्य सोम है, जिसको उदरस्थ करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना की जाती है और कहा जाता है कि हे इन्द्र! ये इन्दवः द्युलोक के रहने वाले हैं।

इस प्रसंग में, इन्द्र से अभिप्राय उस व्यष्टिगत आत्मा से है जो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में बिखरा हुआ रहता है, परन्तु सोमपान करने के लिए उसे अपने बिखराव को समेटकर अपने अन्तस्तम में प्रवेश करना पड़ता है। इसीलिए प्रायः इन्द्र को अर्वावत् (अन्नमय) और परावत् (मनोमय) अथवा इन दोनों के अतिरिक्त उनके अन्तर्वर्ती प्राणमय कोश से भी सोमपान के लिए बुलाया जाता है। आत्मा रूपी इन्द्र के अतिमानसिक रूप को बृहस्पति कहा जाता है और दोनों के संयुक्तरूप को इन्दा-बृहस्पति नाम दिया जाता है। ये दोनों ही दिव्य आनन्दरूपी वसु की वर्षा करने वाले होकर जब सोम को पीते हैं तो इन्दवः उनके भीतर प्रवेश कर जाते हैं और तब साधक को ‘सर्ववीर रयि’ प्राप्त होती है। ये इन्द्रवः चारों ओर से खींच कर समेटे जाने के कारण ‘कृष्टयः’ कहलाते हैं, जो ऊर्ध्वमुखी होकर इन्द्र के अतीन्द्रिय स्वरूप को प्राप्त होते हैं।