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सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १.१०४

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Latest comment: ७ माह पहले by Puranastudy in topic उदान व उदन्

उदान व उदन्

[सम्पाद्यताम्]

उदन् (ऋ. १.१०४.३)

उदक की प्राणरूपता की ओर इंगित करने के लिए ऋग्वेद में उदन् शब्द भी आता है, जिसको भाष्यकारों ने उदक के अर्थ में ग्रहण किया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मन्त्रों में प्रयुक्त इस शब्द के अनेक रूपों का सायण द्वारा स्वीकृत अर्थ द्रष्टव्य है :-

१. उदन् = उदके[39] (ऋ. १, १०४, ३)

२. उदान = उदके[40] (ऋ. १, ११६, २४ ऋ. १०,६७,८)

३. उदनिमान = उदकमान[41] (ऋ ५, ४२, १४)

४. उदन्यजाः इव = उदके भवं उदन्यं, तस्मात् जाताः उदन्यजाः[42]। ऋ. १०, १०६, ६.

५. उदन्यन् = उदकं दातुमिच्छन्[43] (ऋ० १०,९९,८)

६. उदन्यवः = उदकेच्छवः[44] (ऋ ५, ५४, २, ९, ८६, २७)

७. उदन्यवे = उदकेच्छवे[45] (५, ५७,१)

८. उदन्या इव = उदक सम्बन्धिनीव[46] (ऋ २, ७, ३)

९. उदन्वता = उदकवता[47] (ऋ. ५, ८३, ७)

१०. उदन्वतीः = उदकयुक्ताः[48] (ऋ ७, ५०, ४)

११. उदनः इव = उदकान् इव[49] (ऋ ८, १९, १४)

१२ उद्ना = उदकेन[50] (ऋ० ५, ४५, १०, ८५, ६; ८, १००, ९; ४, २०, ६, १०, ६८, ४)

यह उदन् शब्द निस्संदेह उसी उत् और अन् धातु से बना है, जिससे उदान बना है। दोनों में अन्तर यह है कि उदान उद+अन् से निष्पन्न है और उदन् उत् (उद्) + अन् से निष्पन्न है। उदान का उद पूर्वोक्त जै० उ० ब्रा० के अनुसार आदित्य का वाचक है। अतः उदान प्राण आदित्य से प्राप्त होने वाले प्राणों की ओर संकेत करता प्रतीत होता है, परन्तु उदन् का उत् ऊर्ध्व दिशा का द्योतक है। अतः उदन् शब्द मूलतः ऊर्ध्वगामी प्राण का द्योतक रहा होगा। उदक शब्द इन दोनों प्राणों का प्रतीक मान लिया गया प्रतीत होता है। इसीलिए अथर्ववेद में पूर्वोक्त ‘‘उदानिषुः’’ के प्रयोग द्वारा उदक शब्द की व्युत्पत्ति उदान के समान उद+उन् से निष्पन्न है। यदि उदन् शब्द को उत् पूर्वक अन् प्राणने से निष्पन्न किया जाता है, तो इसका अर्थ होगा - ऊपर को सांस लेता हुआ। इससे किंचित् भिन्न उदान शब्द है, जिसको उद् + अन् से निष्पन्न किया जाता है अैर यह उद, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आदित्य का वाचक है। अतः उदान का अर्थ होगा - अखंडता सूचक आदित्य की ओर सांस लेना। दूसरे शब्दों में, उदान का सम्बन्ध साधना के उच्चतर स्तर से है, जबकि उदन् का सम्बन्ध किंचित् निम्न स्तर से है। जिस उच्चतर स्तर की ओर उदान शब्द संकेत करता है, उस स्तर के प्राणोदक के लिए निघण्टु सूची का अर्णः शब्द प्रयुक्त होता है। जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट हैः-

आ सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णो अयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठाः।

उद्ना न नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन्।। ऋ ५, ४५,१० Puranastudy (सम्भाषणम्) १३:४३, ३० एप्रिल् २०२४ (UTC)उत्तर दें