महाभारतम्-17-महाप्रस्थानिकपर्व-001
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भ्रातृभिर्द्रौपद्या च सह स्वर्गे जिगमिषुणा युधिष्ठिरेण युयुत्सौ राज्यभारनिवेशनपूर्वकं परिक्षितो राज्येऽभिषेचनम्।। 1 ।।
तथा कृच्छ्रात्पौरानुमतिसंपादनेन वल्कलधारणादिपूर्वकं शुना सह गृहात्प्रस्थानम्।। 2 ।।
अर्जुनेन मध्येमार्गमग्निवचसा सनिषङ्गस्य गाण्डीवस्य वरुणोद्देशेन समुद्रे प्रक्षेपणम्।। 3 ।।
श्रीवेदव्यासाय नमः। | 17-1-1x |
नारायणं नमस्कृत्यि नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।। | 17-1-1a 17-1-1b |
जनमेजय उवाच। | 17-1-1x |
एवं वृष्ण्यन्धककुले श्रुत्वा मौसलमाहवम्। पाण्डवाः किमकुर्वन्त तथा कृष्णे दिवं गते।। | 17-1-1a 17-1-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 17-1-2x |
श्रुत्वैवं कौरवो राजा वृष्णीनां कदनं महत्। प्रस्थाने मतिमाधाय वाक्यमर्जुनमब्रवीत्।। | 17-1-2a 17-1-2b |
कालः पचति भतानि सर्वाण्येव महामते। कालपाशमहं मन्ये त्वमपि द्रष्टुमर्हसि।। | 17-1-3a 17-1-3b |
इत्युक्तः स तु कौन्तेयः कालः काल इति ब्रुवन्। अन्वपद्यत तद्वाक्यं भ्रातुर्ज्येष्ठस्य धीमतः।। | 17-1-4a 17-1-4b |
अर्जुनस्य मतं ज्ञात्वा भीमसेनो यमौ तथा। अन्वपद्यन्त तद्वाक्यं यदुक्तं सव्यसाचिना।। | 17-1-5a 17-1-5b |
ततो युयुत्सुमानाय्य प्रव्रजन्धर्मकाम्यया। राज्यं परिददौ सर्वं वैश्यापुत्रे युधिष्ठिरः।। | 17-1-6a 17-1-6b |
अभिंषिच्य स्वराज्ये च राजानं च परिक्षितम्। दुःखार्तश्चाब्रवीद्राजा सुभद्रां पाण्डवाग्रजः।। | 17-1-7a 17-1-7b |
एष पुत्रस्य पुत्रस्ते कुरुराजो भविष्यति। यदूनां परिशेषश्च वज्रो राजा कृतश्च ह।। | 17-1-8a 17-1-8b |
परिक्षिद्धास्तिनपुरे शक्रप्रस्थे च यादवः। वज्रो राजा त्वया रक्ष्यो मा चाधर्मे मनः कृथाः।। | 17-1-9a 17-1-9b |
इत्युक्त्वा धर्मराजाः स वासुदेवस्य धीमतः। मातुलस्य च वृद्धस्य रामदीनां तथैव च।। | 17-1-10a 17-1-10b |
भ्रातृभिः सह धर्मात्मा कृत्वोदकमतन्द्रितः। श्राद्धान्यद्दिश्य सर्वेषां चकार विदिवत्तदा।। | 17-1-11a 17-1-11b |
द्वैपायनं नारदं च मार्कण्डेयं तपोधनम्। भारद्वाजं याज्ञवल्क्यं हरिमुद्दिश्य यत्नवान्। अभोजयत्स्वादु भोज्यं कीर्तयित्वा च शार्ङ्गिणं।। | 17-1-12a 17-1-12b 17-1-12c |
ददौ रत्नानि वासांसि ग्रामानश्वान्रथांस्तथा। स्त्रियश्च द्विजमुख्येभ्यस्तदा शतसहस्रशः।। | 17-1-13a 17-1-13b |
कृपमभ्यर्च्य च गुरुमथ पौरपुरस्कृतम्। `आहूय भरतश्रेष्ठ संनिवेश्यासने तदा।' शिष्यं परिक्षितं तस्मै तदौ भरतसत्तमः।। | 17-1-14a 17-1-14b 17-1-14c |
ततस्तु प्रकृतीः सर्वाः समानाय्य युधिष्ठिरः। सर्वमाचष्ट राजर्षिकीर्षितमथात्मनः।। | 17-1-15a 17-1-15b |
ते श्रुत्वैव वचस्तस्य पौरजानपदा जनाः। भृशमुद्विग्रमनसो नाभ्यनन्दन्त तद्वचः।। | 17-1-16a 17-1-16b |
नैवं कर्तव्यमिति ते तदोचुस्तं जनाधिपम्। न च राजा तथाऽकार्षीत्कालपर्यायधर्मिवित्।। | 17-1-17a 17-1-17b |
ततोऽनुमान्य धर्मात्मा पौरजानपदं जनम्। गमनाय मतिं चक्रे कृष्णस्य गमनादपि।। | 17-1-18a 17-1-18b |
`वर्तमाने विवादे तु वास्तुविक्रयिणं प्रति। धनेच्छा युगपत्प्राप्ता क्षेत्रतस्वामिभूभृताम्।। | 17-1-19a 17-1-19b |
प्राप्तं कलियुगं ज्ञात्वा सहदेवो हसन्निव। राज्ञस्तु कथयामास धर्मो नष्टस्तु सङ्करः।। | 17-1-20a 17-1-20b |
श्रुत्वा तु दुर्मना राजा पर्याप्तं जीवनं मम।' इति स्म राजा कौरव्यो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। उत्सृज्याभरणान्यङ्गाज्जगृहे वल्कलान्युत।। | 17-1-21a 17-1-21b 17-1-21c |
भीमार्जुनयमाश्चैव द्रौपदी च यशस्विनी। तथैव जगृहुः सर्वे वल्कलानि नराधिप।। | 17-1-22a 17-1-22b |
विधिवत्कारयित्वेष्टिं नैष्ठिकीं भरतर्षभ। समुत्सृज्याप्सु सर्वेऽग्नीन्प्रतस्थुर्नरपुङ्गवाः।। | 17-1-23a 17-1-23b |
ततः प्ररुरुदुः सर्वाः स्त्रिंयो दृष्ट्वा नरोत्तमान्। प्रस्थितान्द्रौपदीषष्ठान्पुरा द्यूतजितान्यथा।। | 17-1-24a 17-1-24b |
हर्षोऽभवच्च सर्वेषां भ्रातॄणां गमनं प्रति। युधिष्ठिरमतं ज्ञात्वा वृष्णिक्षयमवेक्ष्य च। | 17-1-25a 17-1-25b |
भ्रातरः पञ्च कृष्णा च षष्ठी श्वा चैव सप्तमः। आत्मना सप्तमो राजा निर्ययौ गजसाह्वयात्। पौरैरनुगतो दूरं सर्वैरन्तःपुरैस्तथा।। | 17-1-26a 17-1-26b 17-1-26c |
न चैनमशकत्कश्चिन्निवर्तस्वेति भाषितुम्। न्यवर्तन्त ततः सर्वे नरा नगरवासिनः।। | 17-1-27a 17-1-27b |
कृपप्रभृतयश्चैव युयुत्सुं पर्यवारयन्। विवेश गङ्गां कौरव्य उलूपी भुजगात्मजा।। | 17-1-28a 17-1-28b |
चित्राङ्गदा ययौ चापि मणलूरपुरं प्रति। शिष्टाः परिक्षितं त्वन्या मातरः पर्यवारयन्।। | 17-1-29a 17-1-29b |
पाण्डवाश्च महात्मानो द्रौपदी च यशस्विनी। कृतोपवासाः कौरव्य प्रययुः प्राङ्मुखास्ततः।। | 17-1-30a 17-1-30b |
योगयुक्ता महात्मानस्त्यागधर्ममुपेयुषः। अभिजग्मुर्बहून्देसान्सरितः सागरांस्तथा।। | 17-1-31a 17-1-31b |
युधिष्ठिरो ययावग्रे भीमस्तु तदनन्तरम्। अर्जुनस्तस्य चान्वेव यमौ चापि यथाक्रमम।। | 17-1-32a 17-1-32b |
पृष्ठतस्तु वरारोहा श्यामा पद्मदलेक्षणा। द्रौपदी योषितांश्रेष्ठा ययौ भरतसत्तम। | 17-1-33a 17-1-33b |
श्वा चैवानुयायावेकः प्रस्थितान्पाण्डवान्वनम्। क्रमेणि ते ययुर्वीरा लौहित्यं सलिलार्णवम्।। | 17-1-34a 17-1-34b |
गाण्डीवं तु धनुर्दिव्यं न मुमोच धनंजयः। रत्नलोभान्महाराज ते चाक्षय्ये महेषुधी।। | 17-1-35a 17-1-35b |
अग्निं ते ददृशुस्तत्र स्थितं शैलमिवाग्रतः। मार्गमावृत्य तिष्ठन्तं साक्षात्पुरुषविग्रहम्।। | 17-1-36a 17-1-36b |
ततो देवः स सप्तार्चिः पाण्डवानिदमब्रवीत्। भोभो पाण्डुसुता वीराः पावकं मां निबोधत।। | 17-1-37a 17-1-37b |
युधिष्ठिर महाबाहो भीमसेन परंतप। अर्जुनाश्विसुतौ वीरौ निबोधत वचो मम।। | 17-1-38a 17-1-38b |
अहमग्निः कुरुश्रेष्ठा मया दग्धं च खाण्डवम्। अर्जुनस्य प्रभावेन तथा नारायणस्य च।। | 17-1-39a 17-1-39b |
अयं वः फल्गुनो भ्राता गाण्डीवं परमायुधम्। परित्यज्य वने यातु नानेनार्थोस्ति कश्चन।। | 17-1-40a 17-1-40b |
चक्ररत्नं तु यत्कृष्णे स्थितमासीन्महात्मनि। गतं तच्च पुनर्हस्ते कालेनैष्यति तस्य ह।। | 17-1-41a 17-1-41b |
वरुणादाहृतं पूर्वं मयैतत्पार्थकारणात्। गाण्डीवं धनुषां श्रेष्ठं वरुणायैव दीयताम्।। | 17-1-42a 17-1-42b |
ततस्ते भ्रातरः सर्वे धनंजयमचोदयन्। स जले प्राक्षिपच्चैतत्तथाऽक्षय्ये महेषुधी।। | 17-1-43a 17-1-43b |
ततोऽग्निर्भरतश्रेष्ठ तत्रैवान्तरधीयत। ययुस्च पाण्डवा वीरास्ततस्ते दक्षिणामुखाः।। | 17-1-44a 17-1-44b |
ततस्ते तूत्तरेणैव तीरेण लवणांभसः। जग्मुर्भरतशार्दूल दिशं दक्षिणपश्चिमाम्।। | 17-1-45a 17-1-45b |
ततः पुनः समावृत्ताः पश्चिमां दिशमेव ते। ददृशुर्द्वारकां चापि सागरेण परिप्लुताम्।। | 17-1-46a 17-1-46b |
उदीचीं पुनरावृत्त्य ययुर्भरतसत्तमाः। प्रादक्षिण्यं चिकीर्षन्तः पृथिव्या योगधर्मिणः।। | 17-1-47a 17-1-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते महाप्रस्थानिकपर्वणि प्रथमोऽध्यायः।। 1 ।। |
17-1-2 प्रस्थाने स्वर्गं गन्तुं गृहान्निःसरणे।। 17-1-3 पाशं तत्कृतमाकर्षं मरणमितियावत्। तदहं मन्ये अङ्गीकरोमि। त्वमप्येतद्द्रष्टुमालोचितुम्।। 17-1-5 कालः काल इति नित्यार्थे द्वित्वम्। अपरिहार्यः कालो मृत्युः सोऽद्यैवास्तु किं चिरेणेत्याशयः।। 17-1-6 धर्मकाम्यया प्रवजन्नतूद्वेगेन। परिददौ तदधीनं कृतवान्। तस्याभिषेकेऽनधिकारात्।। 17-1-7 स्वराज्ये हास्तिनपुरे।। 17-1-9 अधर्मे परिक्षिद्वज्रयोर्बालयोररक्षणजे। महाप्रस्थानमियं मा कुर्यादिति भावः।। 17-1-13 स्त्रियो दासीः।। 17-1-18 अनुमान्यानुमतिप्रदं कृत्वा।। 17-1-23 नैष्ठिकीं पार्यन्तिकीं उत्सर्गेष्टिमित्यर्थः। आत्मन्यग्नीन्समारोप्याप्स्वग्नीनुत्सृज्येति ज्ञेयम्।। 17-1-29 अन्या युधिष्ठिरादीनां भार्याः श्रउतसोमादीनां मातरः।। 17-1-34 लौहित्यं उदयाचलप्रान्तस्थं समुद्रम।। 17-1-40 अनेन गाण्डीवेन। अर्थः प्रयोजनम्।। 17-1-41 कालेन अवतारान्तरे।।
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