महाभारतम्-04-विराटपर्व-071
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनकुरुयुद्धदिदृक्षया समागतैर्देवैरर्जुनं श्लाघमानैः सद्भिः पुनः स्वर्गंप्रति गमनम् ।। 1 ।। उत्तरेण सवादिन्नगोषं पौरैः प्रत्युद्गम्यमानेन स्वनगरप्रवेशनम् ।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 4-71-1x |
युद्धं तु मानुषं द्रष्टुमागतास्त्रिदशाः पुरा। | 4-71-1a 4-71-1b |
वैशंपायन उवाच। | 4-71-2x |
वासवप्रमुखाः सर्वे देवाः सर्षिपुरोगमाः। | 4-71-2a 4-71-2b |
युद्धं तु मानुषं दृष्ट्वा कुरूणां फल्गुनस्य च। | 4-71-3a 4-71-3b |
अस्त्राणामथ दिव्यानां प्रयोगानथ संग्रहान्। | 4-71-4a 4-71-4b |
भीष्मं शारद्वतं द्रोणं कर्णं गाण्डीवधन्वना। | 4-71-5a 4-71-5b |
सर्वे ते परितुष्टाश्च प्रशस्य च मुहुर्मुहुः। | 4-71-6a 4-71-6b 4-71-6c |
[*कुरवो निर्जिताः सर्वे भीष्मद्रोणकृपादयः। | 4-71-7a 4-71-7b 4-71-7c |
कस्मिन्मुहूर्ते संजातः कस्य धर्मस्य वा फलम् ।। | 4-71-8a |
किमाश्चर्यं फल्गुनेऽस्मिन्यो रुद्रेण न्ययोधयत्। | 4-71-9a 4-71-9b |
तस्य चैतत्किमाश्चर्यं स्तुवन्त इति ते सुराः । | 4-71-10a 4-71-10b |
कुरवोऽर्जुनबाणैश्च ताडिताः शरविक्षताः । | 4-71-11a 4-71-11b |
विराटनगराच्चैव गजाश्वरथसंकुलाः । | 4-71-12a 4-71-12b |
विराटप्रहिता सेना नगराच्छीघ्रयायिनी । | 4-71-13a 4-71-13b |
तस्मिंस्तूर्यशताकीर्णे हस्त्यश्चरथसंकुले । | 4-71-14a 4-71-14b |
अर्जुनस्तु ततो दृष्ट्वा सैन्यरेणुं समुत्थितम् । | 4-71-15a 4-71-15b |
नगरे तुमुलः शब्दो रेणुश्चाक्रमते नभः। | 4-71-16a 4-71-16b |
ते चैव निर्जिताऽस्माभिर्महेष्वासाः सुतेजसः । | 4-71-17a 4-71-17b 4-71-17c |
न तावत्तलनिर्घोषं गाण्डीवस्य च निस्वनम् । | 4-71-18a 4-71-18b |
उत्तर उवाच। | 4-71-19x |
सेनाग्रमेतन्मात्स्यानां गणिकाश्च स्वलंकृताः। | 4-71-19a 4-71-19b |
उत्तरामत्र पश्यामि सखीभिः परिवारिताम्। | 4-71-20a 4-71-20b |
रथिनश्च पदाताश्च बहवो न च शस्त्रिणः। | 4-71-21a 4-71-21b 4-71-21c |
वैशंपायन उवाच। | 4-71-22x |
ततः शीघ्रं समासाद्य उत्तरं स्वजनो बहु। | 4-71-22a 4-71-22b |
जना ऊचुः। | 4-71-23x |
प्रीतिमान्पुरुषव्याघ्रो हर्षयुक्तः पुनः पुनः । | 4-71-23a 4-71-23b 4-71-23c |
उत्तर उवाच। | 4-71-24x |
अजैषीदेष जाञ्जिष्णुः कुरूनेकरथो रणे। | 4-71-24a 4-71-24b 4-71-24c |
अकार्षीदेष तत्कर्म देवपुत्रोपमो युवा। | 4-71-25a 4-71-25b 4-71-25c |
वैशंपायन उवाच। | 4-71-26x |
उत्तरस्य वचः श्रुत्वा शंसमानस्य चार्जुनम्। | 4-71-26a 4-71-26b |
ततो गन्धैश्च माल्यैश्च धूपैश्च वसुसंभृतैः । | 4-71-27a 4-71-27b |
आपूर्यमाणो माल्यैश्च गन्धैश्च विविधैः शुभैः । | 4-71-28a 4-71-28b |
भेर्यश्च तूर्याणि च वेणवश्च | 4-71-29a 4-71-29b 4-71-29c 4-71-29d |
प्रशस्यमानस्तु जयेन तत्र | 4-71-30a 4-71-30b 4-71-30c 4-71-30d |
पुत्र्यै विराटस्य ततो वराणि | 4-71-31a 4-71-31b 4-71-31c 4-71-31d |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
4-71-7 *इमे श्लोकाः थo पुस्तकमात्रे वर्तन्ते।
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