महाभारतम्-04-विराटपर्व-065
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनेनोत्तरंप्रति भीष्मादिसकाशे रथप्रापणप्रेरणापूर्वकं तदाप्यायनाय स्वपराक्रमप्रकथनम् ।।1 ।। तदा दुःशासनादिपराभवनपूर्वकं भीष्मादिभिः सहायोधनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-65-1x |
कर्णं पराजितं दृष्ट्वा पार्थो वैराटिमब्रवीत्। | 4-65-1a 4-65-1b |
यत्र शान्तनवो भीष्मः सर्वेषां नः पितामहः । | 4-65-2a 4-65-2b |
तालो वै काञ्चनो यत्र वज्रवैडूर्यभूषितः । | 4-65-3a 4-65-3b |
दारुणं प्रहरिष्यामि रथबृन्दानि धन्विनाम्। | 4-65-4a 4-65-4b |
अस्यन्तं दिव्यमस्त्राणि चित्रमुत्तर पश्यसि ।। | 4-65-5a |
शतह्रदां जृम्भमाणां मेघस्थां प्रावृषीव च। | 4-65-6a 4-65-6b |
दक्षिणेनाथ वामेन कतमेन स्विदस्यति। | 4-65-7a 4-65-7b |
अस्त्रोदकां हयावर्तां नागनक्रां रथह्रदाम्। | 4-65-8a 4-65-8b |
पाणिपादशिरःपृष्ठबाहुशङ्खचराचरम्। | 4-65-9a 4-65-9b |
तूणीशयाः सुपुङ्खाग्रा विशिखा दुन्दुभिस्वनाः। | 4-65-10a 4-65-10b |
ध्वजवृक्षं शरतृणं नागाश्वश्वापदाकुलम् । | 4-65-11a 4-65-11b 4-65-11c |
जयतो भारतीं सेनामेकस्य मम संयुगे। | 4-65-12a 4-65-12b |
मया चक्रमिवाविद्धं सैन्यं द्रक्ष्यसि केवलम् । | 4-65-13a 4-65-13b 4-65-13c |
असंभ्रान्तो रथे तिष्ठन्समेषु विषमेषु च। | 4-65-14a 4-65-14b |
अहमिन्द्रस्य संग्रामे द्विषतो बलदर्पितान्। | 4-65-15a 4-65-15b 4-65-15c |
निवातकवचान्हत्वा गाण्डीवास्त्रैः सहस्रशः । | 4-65-16a 4-65-16b |
हत्वा षष्टिसहस्राणि रथानामुग्रधन्विनाम्। | 4-65-17a 4-65-17b 4-65-17c |
अहमिन्द्राद्दृढां मुष्टिं ब्रह्मणः क्षिप्रहस्तताम् । | 4-65-18a 4-65-18b |
रौद्रं रुद्रादहं वेद्मि वारुणं वरुणादपि । | 4-65-19a 4-65-19b |
अस्त्रमाग्नेयमग्नेश्च वायव्यं मातरिश्वनः। | 4-65-20a 4-65-20b |
अद्य गाण्डीवनिर्मुक्तैःशरौघै रोमहर्षणैः । | 4-65-21a 4-65-21b |
वैशंपायन उवाच। | 4-65-22x |
एवमाश्वासितस्तेन वैराटिः सव्यसाचिना। | 4-65-22a 4-65-22b |
रथिसिंहमनाधृष्यं जिगीषन्तं परान्रणे। | 4-65-23a 4-65-23b |
दुःशासनोऽभ्ययात्तूर्णमर्जुनं भरतर्षभः ।। | 4-65-24a |
अन्येऽपि चित्राभरणा युवानो मृष्टकुण्डलाः । | 4-65-25a 4-65-25b |
दुःशासनो विकर्णश्च वृषसेनो विविशतिः। | 4-65-26a 4-65-26b |
तस्य दुःशासनः षष्टिं वामपार्श्वे समार्पयत्। | 4-65-27a 4-65-27b |
पुनश्चैव स भल्लेन विद्ध्वा वैराटिमुत्तरम् । | 4-65-28a 4-65-28b |
तस्य जिष्णुरुदावृत्य क्षुरधारेण कार्मुकम्। | 4-65-29a 4-65-29b |
अथैनं पञ्चभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे। | 4-65-30a 4-65-30b |
सर्वा दिशश्चाभ्यपतद्बीभत्सुरपाराजितः। | 4-65-31a 4-65-31b 4-65-31c |
ततस्तमपि कौन्तेयः शरेण नतपर्वणा । | 4-65-32a 4-65-32b |
ततः पार्थमुपाद्रुत्य दुस्सहः सविविंशतिः। | 4-65-33a 4-65-33b |
तावुभौ गृध्रपत्राभ्यां निशिताभ्यां धनञ्जयः। | 4-65-34a 4-65-34b |
तौ हताश्वौ तु विद्धाङ्गौ धृतराष्ट्रात्मजावुभौ । | 4-65-35a 4-65-35b |
व्यद्रावयदशेषांश्च धृतराष्ट्रसुतांस्तदा । | 4-65-36a 4-65-36b |
किरीटमाली कौन्तेयो लब्धलक्षः प्रतापवान् । | 4-65-37a 4-65-37b |
अशेरत महावीराः शतशो रुक्ममालिनः ।। | 4-65-38a |
कमलदिनकरेन्दुसन्निभैः सितदशनैः सुमुखाक्षिनासिकैः। | 4-65-39a 4-65-39b |
सुनसं चारुदीप्ताश्चं क्लृप्तश्मश्रु स्वलंकृतम् । | 4-65-40a 4-65-40b |
एवं तत्प्रहतं सैन्यं समन्तात्प्रद्रुतं भयात्।। | 4-65-41a |
अथ दुर्योधनः कर्णः सौबलः शकुनिस्तदा। | 4-65-42a 4-65-42b |
सहिता विजयं तत्र योधयन्तो महारथाः। | 4-65-43a 4-65-43b |
ततः कीर्णपताकेन रथेनादित्यवर्चसा। | 4-65-44a 4-65-44b |
ते महास्त्रैर्महेष्वासाः परिवार्य धनञ्जयम्। | 4-65-45a 4-65-45b |
शरौघान्सम्यगस्यन्तो जीमूता इव शारदाः । | 4-65-46a 4-65-46b |
इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं निशितैर्लोमवापिभिः । | 4-65-47a 4-65-47b |
ततः प्रहस्य बीभत्सुस्तमैन्द्रं पञ्चवार्षिकम् । | 4-65-48a 4-65-48b |
नाक्षणां न च चक्राणां न रथानां न वाजिनाम् । | 4-65-49a 4-65-49b |
यथा रश्मिभिरादित्यो वृणुते सर्वतो दिशम्। | 4-65-50a 4-65-50b |
यथा बलाहके विद्युत्पावको वा शिलोच्चये। | 4-65-51a 4-65-51b |
यथा वर्षति पर्जन्यो विद्युत्पतति पर्वते। | 4-65-52a 4-65-52b |
त्रस्ताश्च रथिनःक सर्वे चैन्द्रमस्त्रं विकुर्वति। | 4-65-53a 4-65-53b 4-65-53c |
तानि सर्वाणि सैन्यानि भग्नानि भरतर्षभ । | 4-65-54a 4-65-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
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