महाभारतम्-04-विराटपर्व-014
← विराटपर्व-013 | महाभारतम् चतुर्थपर्व महाभारतम्-04-विराटपर्व-014 वेदव्यासः |
विराटपर्व-015 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
द्रौपद्या सैरन्ध्रीवेषधारणेन सुदेष्णागृहे निवासः ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच । | 4-14-1x |
ततः कृष्णा सुकेशी सा दर्शनीया शुचिस्मिता। | 4-14-1a 4-14-1b 4-14-1c |
वासश्च परिधायैकं कृष्णा सुमलिनं महत्। | 4-14-2a 4-14-2b |
प्रविष्टा नगरं भीरूः सैरन्ध्रीवेषसंयुता। | 4-14-3a 4-14-3b |
अपृच्छंस्ते च तां दृष्ट्वा का त्वं किं च चिकीर्षसि। | 4-14-4a 4-14-4b 4-14-4c |
वैशंपायन उवाच। | 4-14-5x |
तस्या रूपेण वेषेण श्लक्ष्णया च गिरा तथा। | 4-14-5a 4-14-5b |
विराटस्य तु कैकेयी भार्या परमसंमता। | 4-14-6a 4-14-6b |
सा समीक्ष्य तथारूपामनाथामेकवाससम्। | 4-14-7a 4-14-7b |
विराटभार्या तां देवी कारुण्याज्जातसंभ्रमा। | 4-14-8a 4-14-8b |
अपनीय ततः सर्वा आनयध्वमिहैव ताम्। | 4-14-9a 4-14-9b 4-14-9c |
तास्तथोक्ता उपागम्य द्रौपदीं परिसंगताः। | 4-14-10a 4-14-10b |
भद्रे त्वां द्रष्टुमिच्छन्ती सुदेष्णा हर्म्यभूतले। | 4-14-11a 4-14-11b 4-14-11c |
तच्छ्रुत्वा द्रौपदी तासां वचनं वाक्यकोविदा। | 4-14-12a 4-14-12b |
राजवेश्म ह्युपाक्रम्य यत्राग्र्यमहिषी स्थिता। | 4-14-13a 4-14-13b |
कृष्णान्केशान्मृदून्दीर्घान्समुद्ग्रथ्यासितेक्षणा। | 4-14-14a 4-14-14b 4-14-14c |
सा प्रविश्य विराटस्य द्रौपद्यन्तःपुरं शुभा। | 4-14-15a 4-14-15b |
अभिगम्य च सुश्रोणी सर्वलक्षणसंयुता। | 4-14-16a 4-14-16b |
रक्तसूक्ष्माम्बरधरां मेघे सौदामिनीमिव । | 4-14-17a 4-14-17b |
सुभ्रूं सुकेशीं सुश्रोणीं कुब्जवामनमध्यगाम्। | 4-14-18a 4-14-18b |
सुदेष्णां राजमहिषीं सर्वालंकारभूषिताम्। | 4-14-19a 4-14-19b |
ताः सर्वा द्रौपदीं दृष्ट्वा सन्तप्ताः परमाङ्गनाः । | 4-14-20a 4-14-20b |
निरीक्षमाणाः सर्वास्ताः शचीं देवीमिवागताम्। | 4-14-21a 4-14-21b 4-14-21c |
न ह्रस्वां नातिमहतीं जातां बहुतृणे वने। | 4-14-22a 4-14-22b |
तां मृगीमिव वित्रस्तां यूथभ्रष्टामिव द्विपाम्। | 4-14-23a 4-14-23b |
रोहिणीमिव ताराणां दीप्तामग्निशिखामिव। | 4-14-24a 4-14-24b |
सुलभामिव नागीनां मृगीणामिव किन्नरीम्। | 4-14-25a 4-14-25b |
तामचिन्त्यतमां लोके इलामिव यशस्विनीम् । | 4-14-26a 4-14-26b |
सीतामिव सतीं शुद्धामरुन्धतीमिव प्रियाम् । | 4-14-27a 4-14-27b |
का त्वं सर्वानवद्याङ्गि कुतोसि त्वमिहागता। | 4-14-28a 4-14-28b |
गूढगुल्फा समानोरूस्त्रिगम्भीरा षडुन्नता। | 4-14-29a 4-14-29b |
शुकेशी सुस्वरा श्यामा पीनश्रोणीपयोधरा। | 4-14-30a 4-14-30b |
कम्बुग्रीवा गूढसिरा पूर्णचन्द्रनिभानना । | 4-14-31a 4-14-31b |
अप्सरा वाऽसि नागी वा तारा वा त्वं विलासिनी । | 4-14-32a 4-14-32b |
तेनतेनैव संपन्ना काश्मीरीव तुरंगमा। | 4-14-33a 4-14-33b |
देवि देवेषु विख्याता ब्रूहि का त्वमिहागता। | 4-14-34a 4-14-34b |
त्वां सृष्ट्वोपरतं मन्ये लोककर्तारमीश्वरम्। | 4-14-35a 4-14-35b |
प्रवालपुष्पस्तबकैराचिता वनदेवताः। | 4-14-36a 4-14-36b |
अन्तःपुरगता नार्यो मृगाः पक्षिगणा नराः। | 4-14-37a 4-14-37b |
न त्वादृशी काचन मे त्रिषु लोकेषु सुन्दरी। | 4-14-38a 4-14-38b |
द्रौपद्युवाच। | 4-14-39x |
नास्ति देवी न गन्धर्वी न यक्षी न च किन्नरी। | 4-14-39a 4-14-39b |
पतीनां प्रेक्षमाणानां कस्मिंश्चित्कारणान्तरे। | 4-14-40a 4-14-40b |
तत्र द्वादशवर्षाणि वन्यमूलफलाशना। | 4-14-41a 4-14-41b |
जानामि केशान्ग्रथितुं विचित्रान्ग्रथितुं मणीन्। | 4-14-42a 4-14-42b |
सिन्धुवारकजातीनां रचयाम्यवतंसकान्। | 4-14-43a 4-14-43b 4-14-43c |
आराधनं सत्यभामां कृष्णस्य महिषीं प्रियाम्। | 4-14-44a 4-14-44b |
तथाऽस्मि सुभ्रुवा चाहमिष्टलाभेन तोषिता। | 4-14-45a 4-14-45b 4-14-45c |
न चाहं चिरमिच्छामि क्वचिद्वस्तुं शुभानने। | 4-14-46a 4-14-46b |
योऽस्माकं तु हरेद्द्रव्यं देशं वसनमेव वा। | 4-14-47a 4-14-47b |
साऽहं वनानि दुर्गाणि तीर्थानि च सरांसि च। | 4-14-48a 4-14-48b |
भर्तृशोकपरीताङ्गी भर्तृसब्रह्मचारिणी । | 4-14-49a 4-14-49b |
वीरपत्नी यदा देवी चरमाणेषु भर्तृषु। | 4-14-50a 4-14-50b 4-14-50c |
माहात्म्यं च ततः श्रुत्वा ब्राह्मणानां समीपतः। | 4-14-51a 4-14-51b |
गुरवो मम धर्मश्च वायुः शक्रस्तथाऽश्विनौ । | 4-14-52a 4-14-52b |
वैशंपायन उवाच। | 4-14-53x |
एवमुक्त्वा सुदेष्णां तां कृताञ्जलिपुटा स्थिता। | 4-14-53a 4-14-53b |
न भरेयमहं भद्रे संशयो मम विद्यते। | 4-14-54a 4-14-54b |
साऽहं त्वां न क्षमां मन्ये वसन्तीमिह वेश्मनि। | 4-14-55a 4-14-55b |
स्थिता राजकुले नार्यो याश्चेमा मम वेश्मनि। | 4-14-56a 4-14-56b |
वृक्षांश्चोपस्थितान्पश्य य इमे मम वेश्मनि। | 4-14-57a 4-14-57b |
बिभर्षि परमं रूपमतिमानुषमद्भुतम्। | 4-14-58a 4-14-58b 4-14-58c |
राजा विराटः सुश्रोणि दृष्ट्वा ते परमं वपुः। | 4-14-59a 4-14-59b |
यं हि त्वमनवद्याङ्गी नरमायतलोचने। | 4-14-60a 4-14-60b |
सुस्नाताऽलंकृता हि त्वं यमीक्षेथा हि मानुषम्। | 4-14-61a 4-14-61b |
न शोको न च सन्तापो न क्रोधो नानृतं वदे। | 4-14-62a 4-14-62b |
न व्याधिर्न जरा तस्य न तृष्णा न क्षुधा भवेत्। | 4-14-63a 4-14-63b |
पञ्चत्वमपि संप्राप्तं यं च त्वं परिपस्वजेः। | 4-14-64a 4-14-64b |
यस्य हि त्वं भवेर्भार्या यं च हृष्टा परिष्वजेः । | 4-14-65a 4-14-65b |
अध्यारोहेद्यथा वृक्षं यथा वाऽऽरुह्य तक्षति। | 4-14-66a 4-14-66b |
यथा कर्कटकी गर्भमाधत्ते मृत्युमात्मनः। | 4-14-67a 4-14-67b |
अनुमानये त्वां सैरन्ध्रि नावमन्ये कथंचन। | 4-14-68a 4-14-68b |
सैरन्ध्र्युवाच। | 4-14-69x |
नाहं शक्या विराटेन यद्वा चान्येन केनचित्। | 4-14-69a 4-14-69b |
गन्धर्वाः पालयन्ते मां सुकुलाः पञ्च सुव्रताः । | 4-14-70a 4-14-70b |
यश्च दुःशीलवान्मर्त्यो मां स्पृशेद्दुष्टचेतसा। | 4-14-71a 4-14-71b |
यस्यापि हि शतं पूर्णं बान्धवानां भवेदपि। | 4-14-72a 4-14-72b 4-14-72c |
न तस्य त्रिदशा देवा नासुरा न च पन्नगाः। | 4-14-73a 4-14-73b |
सुदेष्णे विश्वस त्वं मां स्वजने बान्धवेऽपि वा । | 4-14-74a 4-14-74b |
यो मे न दद्यादुच्छिष्टं न च पादौ प्रधावयेत्। | 4-14-75a 4-14-75b |
यो हि मां पुरुषो गृद्ध्येद्यथाऽन्याः प्राकृतस्त्रियः। | 4-14-76a 4-14-76b |
न चाप्यहं चालयितुं शक्या केनचिदङ्गने। | 4-14-77a 4-14-77b 4-14-77c |
वैशंपायन उवाच। | 4-14-78x |
एवमुक्ता तु सैरन्ध्र्या सुदेष्णा वाक्यमब्रवीत्। | 4-14-78a 4-14-78b |
कश्च ते दातुमुच्छिष्टं पुमानर्हति भामिनि । | 4-14-79a 4-14-79b |
एवमाचारसंपन्ना एवं देवपरायणा। | 4-14-80a 4-14-80b |
देवता इव कल्याणि पूजिता वरवर्णिनी। | 4-14-81a 4-14-81b 4-14-81c |
वैशंपायन उवाच। | 4-14-82x |
सुदेष्णयैवमुक्ता सा संप्रीता चारुहासिनी। | 4-14-82a 4-14-82b |
याज्ञसेनी सुदेष्णां तु शुश्रूपन्ती विशांपते। | 4-14-83a 4-14-83b |
एवं विराटे न्यवसंस्तु पाण्डवाः कृष्णा तथाऽन्तःपुरमेत्य शोभना। | 4-14-84a 4-14-84b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
4-14-1 समुत्क्षिप्य वल्गिताग्राननिन्दितानिति खo थo धo पाठः ।। 1 ।। चतुर्दशोऽध्यायः ।। 14 ।।
विराटपर्व-013 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | विराटपर्व-015 |