प्रहर्षिणी छन्द ।
भोग की व्यवस्था नहीं हो सकेगी (येन ) क्योंकि (मनोपि )
मन भी (. सर्वे: ) सर्वात्माओं के साथ ( व्यतिकरम् )
सांकर्यता को (श्रयते ) प्राप्त होता है अर्थात् मिल जाता है ।
(यदि तनूपाधिभि:व्यवस्थां त्वं गदसि ) यदि तू देहरूप उपा
धियों से भोग की व्यवस्था हो सकेगी ऐसा कहे अर्थात् प्रत्येक
आत्मा को जो जो भोग प्राप्त होता है उस प्रत्येक भोग में कुछ
न कुछ विशेषता है इसलिये उस भोग का एक विशिष्ट देह ही
कारण है इस प्रकार यदि भोग की व्यवस्था देह की उपाधि से
कहेगा तो (नानात्म्यम्) अनेक आत्मता और आत्माका नानात्व
ही (अप्रमाणम्) अप्रमाण हो जावेगा । अर्थ यह हैकि एकात्मवाद्
में भी उक्त प्रकार से भोग व्यवस्था संभव होने से नाना श्रात्मा
मानना ही व्यर्थ होगा । यदि कोई कहे कि. आत्मा का नानात्व
मानने में विशेष पदार्थ ही हेतु है तो उसके लिये कहना चाहिये
कि एक विशेष ही यदि सबका भेदक है तो श्रावकाश भी अनेक
मानने पड़ेगे और यदि बहुत विशेष भेदक हैं तो विशेषों के
आश्रय भूत पदार्थो का भेद विशेषों से पहले सिद्ध है फिर
विशेषों ने क्या किया ? इसलिये विशेषों की कल्पना निष्फल है,
इस तात्पर्य से कहते हैं कि (यतः) जिस कारण से (इह)
आत्मा के ( भेदे सिद्धे प्रसिद्धे अपि वा कल्पनीया: विशेषाः
विफला:) भेद के सिद्ध हुए अथवा प्रसिद्ध हुए विशेष पदार्थ
का स्वीकार निष्फल है ।॥३९॥
किंचात्मन्यनवयवेन संप्रयोगः संभाव्यो निरवय
वस्य मानसस्य । न द्रव्यं निरवयवां न शाश्वतं