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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२७

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प्रकरण १ श्लो० ११ [ १९ चिन्मात्र रूप ब्रह्मात्मेकत्व बोधः स भवति सुमतेस्तत्वमस्यादि वाक्यात् । देहायध्यास दाढ्यांच्छरुतमपि सहसा नेव संभावनीयं ब्रह्मत्व स्वस्य तस्मान् नय गुरु वचनः साधु मीमांसनीयम् ॥११॥ अपना सार भूत अद्वितीय, सुखरूप, अनंत, चेतनमात्र परब्रह्म और आत्माकी एकताका जो अनुभवस्वप बोध तत्व मस्यादि वाक्य के श्रवण से बुद्धि वाले को होता है वह ज्ञान है, फिर भी अपना ब्रह्मत्व स्वरूप का बोध देहादिक के दृढ़ अध्यास के कारण सहज में संभवनीय नहीं है इसीसे गुरु उपदेशानुसार सजन पुरुष विचार करे ॥११॥ ( अद्वितीय) सजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेद से रहित (स्वरस)स्वयंसारभूत (सुखादन)सुखैक मूर्ति (अनन्त) देशकृत कुालकृत, तथा वस्तुछ भेदसे रहित, सर्वपरिच्छेदशून्य (चिन्मात्र) तन्य स्वरूर (ब्रह्मात्मैकत्व बोधः) ब्रह्म आत्मा का जो अभेद् अनुभव है वह अभेदानुभव (अपि) ही (ज्ञानम्) ज्ञानहै अथोत् ' उक्त लक्षण वाला ब्रह्मात्मा के एकत्व बोध का ही नाम ज्ञान है। (सः) सो उक्त लक्षण ज्ञान (सुमतेः) शुद्ध बुद्धि वाले मुख्या धिकारी पुरुष को (तत्त्वमस्यादिवाक्यात् ) जीव ब्रह्म की एकता के बोधक तत्वमसि (सो ब्रह्म तू है) आदिक महावाक्यों से (भवति) होता है । (श्रुतमपि स्वस्य ब्रह्मत्वम्) सो वह श्रपती ब्रह्म रूपता तत्त्वमस्यादि महा वाक्यों द्वारा सुनी हुई तथा