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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२६

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स्वाराज्य सिद्धिं (बुधः) पंडित हूं (इति मतिमान्) इत्थ.ादि उक्त प्रकार के अभिमान वाला पुरुष ही कर्म मीमांसा शास्त्र में (कर्मसु अधि कारी उक्त:) कम में श्रधिकारी कहा है तथा (शान्तः) राग द्वेप श्रादिकों से रहित और (दान्तः) बाह्य और अन्तर इन्द्रियों के निरोध वाला (परिव्राट्) सर्व ओर से विधिपूर्वक सर्व धन धान्यादिकों को दु:ख का साधन जानकर त्यागने वाला श्रर्थात् संन्यासी और (उपरम परम:) देह धारण में समथ भित्रा श्रादिक व्यापार से भिन्न व्यापार मात्र के त्याग स्वभाव वाला वेदान्तों में (ब्रह्मविद्याधिकारी) ब्रह्म ज्ञान का अधिकारी कहा है । (इत्थम्) इसउक्त प्रकार से (भेदे) कम के और ब्रह्म ज्ञान के अधिकारी के भेद सिद्ध होने पर अर्थात् भिन्न-भिन्न विशेपण वाले अधिकारी के सिद्ध होने पर (उभयम्) ज्ञान और कर्म ये दोनों ही ( ससुदितम्) एक ही कालमें मिलकर (मुक्ति हेतुं विवक्षन्) मुक्ति के कारण हैं इस प्रकार जो कोई वादी कहने की इच्छा करता है, (सः)सो वादी (श्रहह्) बड़ा खेद है कि (तृपोच्छेद कामः) पिपासा अर्थात् प्यास की निवृत्ति की इच्छा वाला हुआ (सुशीतं नीरं वैश्वानरंच) श्रति शीतल जल और अति गर्म अग्नि (उभयम्) इन दोनों को (पिबेत् ) एक साथ ही मिलाकर पान करेगा यह संभावना है ! भाव यह हैं, जैसे जल और अग्नि का प्यास दूर करने में समुचय विरुद्ध है, तैसे ही संसार बंध की निवृत्ति करने में ज्ञान और कर्म का सम-समुचय विरुद्ध है।॥१०॥ श्रब उक्त मोक्षके कारणभूत ज्ञानके स्वरूपादिकों को बताते हुए प्रसंभावना को निवृत्ति के लिए विचार ही कर्तव्य है इस बार्ता को बतलात हैं ज्ञानं चाप्यद्वितीय स्वरस सुख घनानन्त