२५८ ! स्वाराज्य सिद्धि सो अवाच्य वस्तु मैं हूं इस प्रकार (स्वेन) अपने को अपने ही से (चिंतन्) चिंतवन करना हुआ मैं आप ही (विस्मितः) आश्चर्या को प्राप्त होता हूं ॥३६॥ अब विद्वान् अपनी हिरण्यगर्भता का वर्णन करता है शिखरिणी छंद । न सत्यो मे लोको न खलु पुनरोकः सरसिजं रजःसंगो दूरे न मयि विधिशब्दः प्रभवति । न वाग्भिः संसगों नच विषम सर्ग व्यसनिता तथापि ब्रह्माहं निगमनिकुरम्बं गदति तत् ॥३७॥ मेरा कोई सत्य लोक नहीं है, प्रसिद्ध कमलासन भी महीं है, मैं रज के संयोग से दूर हूं, मुझमें विधि शब्द भी प्रवृत्त नहीं होता, वाणी का संग भी मुझमें नहीं है और न संसार को उत्पन्न करने में मुझे प्रेम है, फिर भी जिसका वेद वर्णन करते हैं वह ब्रह्मा मैं ही हूं ॥३७॥ ( न सत्यो मे लोकः) मेरे कोई भी सत्य लोक नहीं है। (नखलु पुनः ओोकः सरसिज ) पुनः प्रसिद्ध कोई कमलासन भी मेरा नहा ६ । ( रजः सगा दूर ) राग आदि रूप संगसे मैं दूर हूँ इसलिये (न मयि विधि शब्दः प्रभवति ) मेरे लिये ब्रह्मा शब्द का प्रयोग भी उचित नहीं है। ( वारिभ: संसर्गे न ) मेरा वाक् अर्थात् सरस्वती आदि शक्तियों से भी संबंध नहीं है तथा (विषमसर्ग व्यसनिता नच) विचित्र की उत्पत्ति संसार करने में भी मुझे प्रेम नहीं है, ( तथापि श्रहंब्रह्मा) तो भी मैं हिरण्यगर्भ हूं क्योंकि (निगम निकुरम्बं गदति तत्) एष
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