प्रकरण ३ श्लो० ३६ [ २५७ परम सुखी है, तो यह अतिशय आश्चर्य है.ऐसा ही लोक कहते हैं।॥३५॥ श्रब ब्रह्नवेत्ता और भी श्राश्चर्य वर्णन करता है गीति छंद । यद्विश्वं यदविश्वं यद् बहिरन्तश्च नो बहिन न्तः । यद्भवपारमपारं तदनहम्महमस्मि विस्मि तः स्वेन !॥३६॥ जो विश्ध है, जो अविश्ध है, जो बाहिर है और जो प्रान्तर है, जो बाहिर नहीं है और श्रान्तर नहीं है तथा जो सबके पार है और अपार है, वह अहंकार से राहितं मैं हूं ऐसा मुझे मेरा चिन्तन करते हुए आश्चर्य होता है ॥३६॥ (यत् विश्वम्) जो वस्तु जगत् रूप है परन्तु वास्तव से (यत् अविश्वम्) जो विश्व रूप नहीं है। तथा (यत् बहिः अंतः च) जी सर्व वस्तु के बहिर् तथा अंतर है, परन्तु परमार्थ से जगत्तूरूप विवर्त की अपने अधिष्ठानरूप उपादानसे पृथक् सत्ता न होने से (यत् नो बहिः न अंत:) जो वस्तु न बहिर् है श्रौर न प्रांतर ही है, (यत् भवपारम्) जो परमार्थ वस्तु संसार रूप समुद्र के पार है अर्थात् संसार रूप समुद्र से परे परतीर रूप परमार्थ ब्रह्म है, परन्तु ( अपारम्) जो वस्तु स्वय अपार है अर्थात् अवधि हीन है, (तत्) सो वस्तु (अनहम्) अहंकार के अभाव होने से अहं पद् का अवाच्य है (अहंअस्मि) स्वा. सि. १७
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