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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२६२

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२५४ ] स्वाराज्य सिद्धिः अब अपने स्वरूप बोधकी दृढ़ता के तात्पर्य से कहता है मुहुर्मुढेन्यस्तंभृशमपलपाम्यर्थ निचयं न कश्चित् विश्वास्यो न मम यमदंडादपि भयम् । गुणद्वेषी स्वार्थप्रिय इति जगद्वचनपरं चरित्रं मे चित्रं कविदपि न कश्चित् कलयति ।।३४॥ भूढ़ द्वारा बारंबार श्रारोपित किये हुए पदार्थ समूह रूप इस जगत् का अत्यंत निषेध करता हूं मेरा किसी में विश्वास नहीं है और सुझे यम दंडका भय भी नहीं है, गुणों का द्वेशी हूं स्वार्थ प्रिय हूं, जगत् को हरण करने वाला श्राश्चर्यरूप मेरा चारित्र है जिसकेो कभी, कोई भी नहीं जान सकता ॥३४॥ (मुहुमूडैन्यस्तम्) मूर्ख अज्ञानिश्रों द्वारा बारंबार सत्य रूप से आरोपित (अर्थनिचयं) पदार्थ समूह रूप इस जगत् का (भृशं ) संपूर्ण रूपसे (अपलपामि) में निषेध या अपहरण करता हूं । अर्थ यह है कि इस मन का चोरने वाला में चोर हूं इसलिये ( न कश्चित् विश्वास्यः) ब्रह्मा वा विष्णु आदिक कोई भी पुरुष मेरे विश्वास के योग्य नहीं है अर्थात् ब्रह्मा विष्णु आदिकों की सत्यता का भी मुझे विश्वास नहीं है, (न मम यम दंडातू अपि भयम्) मुझे इसलिये यम के दंड से भी भय नहीं है अर्थात् मैंने अपने स्वरूप बल से यमराज की सत्यता को भी तुच्छ कर दिया है इसलिये में निर्भय हूं । (गुणद्वेषी ) इसी कारण मैं सत्त्व रज तम रूप गुणां सं द्वेप करने वाला हूं। अर्थात् मैं अपने