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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२६१

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-- -- - प्रकरण ३ श्ली० ३३


_______ ___ ___ _ _____ ______ _ __ __ ____ __ _ _ [ २५३ __ _ ___ _ __ निर्मुक्तश्चिति तनुरपाण्यंधिजठरः । अमा योऽप्यात्माऽसौ स्वयमनवकाशोऽपि सहसा समायं त्रैलोक्य'कवलयति कस्मात्कथमहो।॥३३॥ असंग, उदासीन, स्वाभाविक ही परमानंद, तृप्त, भोजन की इच्छारहित, चेतन स्वरूप, हाथ पैर तथा उदर से रहित मायारहित और स्वयं अवकाश से रहित श्रात्मा तीनों लोकों का किस प्रकार ग्रास करता है ? अहो बड़ा आश्चर्य है !॥३३॥ ( प्रसंगोदासीनः) जो देहादिकों में अध्यासरूप संग से रहित है, अतएव चेष्टा से रहित है, ( स्वरस परमानन्द सुहितः) जो स्वभाविक सर्वोत्कृष्ट स्वानन्द से ही तृप्त है अतएव (जिघत्सानिर्मुक्तः) जो भोजन श्रादि करने की इच्छा से रहित है, क्योंकि (चितितनुः) चेतन रूप है अर्थात् बाह्यशरीर से रहित होने से चित् शरीर है, (अपाणी अंत्रीजठर:) जो हाथों से तथा पादों से तथा उदर से रहित है (अमाय:) तथा माया से रहित है (स्वय' अनवकाश:) तथा स्वभाव से वा स्वरूप से छिद्र रहित है (असौ श्रात्मा ) इस उत्त प्रकार का यह श्रात्मा ( समाय' त्रैलोक्यम्) माया सहित त्रिलोकों को अर्थात् मायिक तीनों लोकों को (कस्मात् कथं कवलयति) किस हेतु से और किस प्रकार प्रास करलेता है ? (अहो) यह बड़ा आश्चर्य है ! श्रर्थ यह है कि स्वप्न सृष्टि संहार वत् इस जगत् का संहार है, क्योंकि आत्मा से भिन्न यह सर्व जगत् स्वप्नवत् ही है।॥३३॥