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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२४७

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_ ___ _ __ _____ _ ___ _ __ प्रकरण २ श्लो० २२ _____ _ ______ _ _ • • • • • • • • • • • • • • • • •__ ___________ ___ __ __ __ [ २३९ __ __ _ _ __ _ _ __ तथा श्रात्म भाव से ही आनंदित होता है। इस प्रकार वह देवताओं के समान विश्व में विचरता है ॥२१॥ (असौ) यह ब्रह्मवेत्ता (भूयः प्रियं प्राप्य) अतिशय प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर के (न प्रहृष्यति) प्रसन्न नहीं होता (भूरि कृच्छेषु अपि मेरु वत् निश्चल:) और तैसे ही बहुत दु:खों के प्राप्त होने पर भी यह विद्वान् सुमेरु पर्वत के समान अचल ही रहता है अर्थात् क्षोभ को प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि ( आत्मानंभावयन् आत्मना आनन्दितः) वह आत्मा का सदा वचार करता है और अपने स्वरूप के श्रात्मानंद से ही यह विद्वान् आनन्दित रहता है (देववत् संचरति एव विश्वं भराम्) और इस प्रकार ज्ञानी आत्मानंद से आनंदित रहकर स्वमहिमा में स्थित हुआ ही इस पृथिवी में देववत् पूज्य होकर विचरता है।॥२१॥ प्रारब्ध कर्म के विचित्र विचित्र होने से ब्रह्मवेत्ताओं की स्थिति में भी विचित्रता है, यह अर्थ अब दिखलाते हैं केपि वर्णाश्रमाचार निष्ठा परा मुग्ध बाल प्रम तोपमाश्चापरे। रागिणो भोगिनो योगिनश्चेतरे ज्ञानिनां लक्ष्यते नेकरूपा स्थितिः ।।२२॥ कोईज्ञानी वर्णाश्रम धर्म में निष्ठा वाला है, कोई मूढ, बाल और प्रमत्तके समान है, कोई रोगी और कोई भोगी है तथा कोई योग में रत है। इस प्रकार प्रारब्ध की भिन्नता से ज्ञानी एक प्रकार के देखने में नहीं आते ॥२२॥ __