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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२४६

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२३८ ] ____ _ __ ______ _ स्वाराज्य सिद्धि __ ________ __ ____ _____ ______ - . ६ -७ -- - --

राग लोभ प्रमादादि दोषों के नाश हो जाने से ब्रह्मवेत्ता कभी भी निषिद्धाचरण नहीं करता । पूर्वं संस्कार से साधु के समान वह सदाचारी सब पर ही उपकार करने वाला होता है ॥२०॥

(अयम्) यह ब्रह्मवेत्ता (क्ववित्) किसी काल में भी (राग लोभ प्रमादादि दोषक्षयात् ) राग लोभ प्रमाद् आदिक दोषों के नाश होजाने से ( दुश्चरित्रे न प्रासज्जते) निषिद्धा चरण में प्रवृत्त नहीं होता किंतु (साधुवत् साधुच्चारित्र्यरक्षापरः) स्वधर्म के अनुष्ठान रूप सज्जन पुरुषों के चरित्र का पालन करता हुश्रा यह विद्वान् साधु मुनु पुरुषों के ही समान (साधु मार्गेण वर्तते ) सर्व प्राणियों के ऊपर उपकार करने वाले मार्ग में ही वर्तमान होता है, ( संस्कारत:) क्योंकि इस विद्वान् को अनेक पूर्व जन्मों के शुभाचरण के ही संस्कार हैं तथा मुमुलु अवस्था कृत शुभाचरणों के भी दृढ़ संस्कार हैं।२०॥ ऐसा ब्रह्मवेत्ता निर्विकार हो करके देवता की तरह विश्व पूज्य हुआ पृथिवी में विचरता है इस तात्पर्य से कहते हैं न प्रहृष्यत्यसो प्राप्य भयः प्रियं मेरु वन्नि श्चला भूरिकृच्छष्वपि । भावयन्नात्मनात्मान मानन्दितो देववत् संचरत्येव विश्वंभराम् ||२१ यह ब्रह्मवेत्ता प्रिय पदार्थे की प्राप्ति में प्रसन्न नहीं होता वैसे ही दुःख में भी मेरु के समान अचल रहता है