प्रकरण ३ श्लो० ४ [ २१७ विषय करने वाली परोक्ष बुद्धि (मान भावं उपगंतु नार्हति) प्रमाण भाव के प्राप्त होने के योग्य नहीं है। भाव यह है कि अपरोक्ष स्वभाव वस्तु में परोक्ष ज्ञान उत्पन्न करने वाला प्रमाण अयथार्थ ही हो जावेगा अर्थात् प्रमाण नहीं रहेगा, क्योंकि तन् श्रभाव वाले में तत् प्रकार ज्ञान ही श्रयथार्थ ज्ञान कहा जाता हे । (कुशलः अपि स्वत एव शश्वत् अवभातं श्रात्मनः स्वं न गूहितु' क्षम:) प्रवीण पुरुष भी स्वभाविक सदा अपरोक्ष रूप से भासमान अपने श्रात्मा को परोक्ष रूप करने में समर्थ नहीं हैं । ‘आत्मनः’ यह पंचमी द्वितीया के अर्थ में है ॥३॥ शंका-इन्द्रिय जनित ज्ञान ही अपरोक्ष होता है यह नियम है इसलिये जिसका विषय इन्द्रियगोचर नहीं है ऐसे वाक्य से अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो सकता इस शंका का समाधान श्रागे के श्लोक में देते हैं सुख दुःख राग वतनेष्वसंमतेस्तिमिर प्रसुप्ति वेवषयेष्वदर्शनात् । अपि हेतुरस्य विषय योग्यते त्यपरोचतता न करणेर्नियम्यते ।।४।। सुख, दुःख, राग, यत्र, अंधेरा और स्वप्न के विषयों में नहीं होने से और श्रपरोक्ष ज्ञान के विषय में योग्यता भी हेतु होने से इन्द्रियों से ही अपरोक्ष ज्ञान होता है यह नियम नहीं है ॥४॥ (करणैः अपरोक्षता न नियम्यते) इन्द्रियों से ही अपरोच्न ज्ञान हो यह नियम नहीं है (सुख दु:खराग यत्नेषु असंमते:) सुरूव.