पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१९९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[१९१
प्रकरणं २ श्लो० ४९

मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय इन घांचकोश रूष जगत् का बाध भी उस आत्मा में ही करते हैं, यह वार्ता भी तैत्तिरीय शाखा वाले ही कहते हैं। भाव यह है कि इससे भी ऐक्यता ही दृढ़ होती है, क्योंकि प्रात्मा परमात्मा के एक होनेपर ही जगत् के द्वैत की शंका दूर होती है। बाधित मिथ्या वस्तु अपने श्रधिष्ठान से भिन्न नहीं होती ।।४८।।
अब सामवेद के छांदोग्योपनिषत् के छठे अध्याय में जौ । बार उपदेश किये हुए तत्त्वमसि महावाक्य का स्पष्टीकरण तात्पर्य उद्भावन द्वारा सिंहावलोकन न्याय से आगे के दश श्लोकों में किया जाता है
आसीत् सदेव हि भवाननृतं विधाय तेजोमुखं
तदभिमत्य बभूव जीवः । देहान्तशुगमवधूय

विलोकय स्वं सद् ब्रह्म तत्त्वमसि बोध सुखा

द्वितीयम् ।।४९ ।।
सृष्टि के पूर्व तू सतरूप ही था। फिर मिथ्या तेजादि भूत को उत्पन्न करके उनमें अभिमान करके जीव हुआ । देह के अन्त तक संपूर्ण कार्यो का तिरस्कार करके अपने को देख । वह बोधस्वरूप सुखस्वरूप श्रद्वय और सत्त्वप ब्रह्म तू है ॥४९॥
इस तत्त्वमसि महावाक्यके उपदेश करनेवाला प्रारुणिक्रऋपि है और श्रोता आरुणिऋषि का पुत्र श्वेतकेतु है। (भवान् सदेव आसीतू) हे श्वेतकेतो, सृष्टि से पूर्व तुम सत् रूप ही थे ।