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स्वाराज्य सिद्धि

( अनृतं तेजोमुखं विधाय ) उसके अनंतर शुक्तिरजत की न्याई मिथ्यारूप तेजःप्रभृति यानी अग्नि आदिक भूत जात को यथा ऋकम से उत्पन्न करके (तदभिमत्य) उन तजःप्रभृष्टात भूतों चका कार्य होने से भूतमय शरीर आदिकों में आत्मरूप अभिमान करके (जीवः बभूव ) तू सत् रूप ब्रह्म ही जीव हुआ है।
(देहान्त शुगं अवधूय ) इस कारण, हे श्वेतकेतो, तू अपने स्वरूप ज्ञान द्वारा सव ही देह पर्यंत के अंकुरों को अर्थात् कार्य समुदाय को मिथ्यात्वतया तिरस्कार करके अर्थात् बाधव करके ( स्वं विलोकय ) परमार्थ निज स्वरूप को देख अर्थात् ‘वह सचिदानन्द् ब्रह्म मैं हूं' इस प्रकार अपने परमार्थ स्वरूप का साक्षात्कार कर । (बोधसुखाद्वितीय सत् ब्रह्म तत्त्वमसि ) जो ज्ञानं स्वरूप, आनंद स्वरूप, अद्वैत स्वरूप, सव श्रुति प्रसिद्ध सत्रूप ब्रह्म है ( तत्) सो ब्रह्मा (त्वं) तू ही (असि) है।॥४९॥
प्रथम यह कहा गया था कि दिन दिन में अर्थात् नित्य प्रति यह सर्व प्रजा सुपुप्ति में सत् स्वरूप ब्रह्मात्मा को प्राप्त होती है। फिर यह प्रजा हम सत् को प्राप्त हुए हैं इस प्रकार क्यों नहीं जानती है। इस प्रकार की श्वेतकेतु की शंका को उद्दालक दृष्टांत से दूर करते हैं। उस सब समाधान का इस श्लोक से संक्षेप किया जाता है
संपद्य यत्र मधुनीव रसाः सुषुप्तौ सौख्येकरस्य
मधिगम्य जना न विद्य : । यत् प्रच्युताः पुन
रमी बहुदुःखभाजः सद्ध ब्रह्म तत्त्वमसि नासि
कदापि दुःखी ॥५०॥