पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१९७

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{{rh|center=प्रकरण २ श्ला० ४८|right=[[ १८९ }}


इस प्रकार स्वाज्ञान कल्पित दयालुतादिक गुणगणान्वित श्राचवाय ने उपदेश किया, तब उस मुमुलु रूप ब्रह्म ने ही 'मैं ब्रह्य हूं' इस प्रकार अपने स्वरूप को जाना । इसलिये ( तत् एवहि सर्वम्) वह ब्रह्म ही सर्व रूप हुआ है, अर्थात् वह ब्रह्म अपने स्वरूप ज्ञान से ही अपने में अध्यारोपित अविद्या की निवृत्ति से सर्व ही अविद्या कार्य की निवृत्ति हो जाने पर अपनी स्वभाविक सर्वत्वता को प्राप्त हुआ है।
इस श्लाक क पूवाधव स दाना तत् श्रार त्व पदाथा की वाच्यार्थ सूचित किये हैं और कृत्स्न इस पद से लक्ष्यार्थ सूचित किया है और उत्तरार्ध से वाक्यार्थ सूचित किया है यह विभाग भी जानलेना ॥४७॥
कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा की उपनिषत् में ‘स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये स एक:’ इस वचन से ब्रह्मात्मा की एकता स्पष्ट ही कही है, इस अर्थ के स्पष्ट करने के लिये तैत्तिरीयोपनिषत् के उक्त वचन को यहां श्लोक में अर्थतः संग्रह किया जाता है
यश्चायमत्र पुरुषे प्रथते गुहान्तयश्चाप्रमेय
'सुखभूः सवितुश्च बिम्बे । एकःस इत्यभिदधु
स्फुटमैक्यमेके तद्वेदनाञ्च विलयं जगत्श्च
जो यह प्रत्यगात्मा गुहा के मध्य में है ऐसा प्रसिद्ध है और जो सविता के प्रतिबिम्ब में अप्रमेय सुख स्वरूप रहा हुआ है, वे दोनों एक ही हैं, ऐसा एक शाखा वाले