पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१९६

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स्वाराज्य सिद्धिः

प्रत्यगात्मा दव प्राणाद से भी प्यारा हैं, वह परमाथे से
मैं हूं ऐसा जानता है वह सर्वरूप ब्रह्म ही होता है ॥४७॥
(यत्तमसा व्याकृतं जगत् अभूत) जो ब्रह्म तमः प्रधान माया से स्पष्ट नाम रूप वाला विविधाकार जगत् रूप हश्रा क्योंकि यह सर्व जगत् ब्रह्मका ही विवर्त है, (यच नखाग्रात् । प्रविष्ट तनु कृत्स्नं प्रकृत्स्नं श्रासीत्) जोब्रह्म सर्वरूप हुआभी ब्रह्मा दिस्तंब पर्यन्त देहोंमें अस्पष्ट नाम रूपको स्पष्ट करके नखके अग्र भागतक इन शरीरों में प्रविष्ट हुआ अर्थात् अंत:करणावच्छिन्न हुआ । जैसे सर्व काष्ठ आदिकों में व्यापक अग्नि जाठरत्वरूप वक अवच्छेद् भाव को प्राप्त हुआ है तैसे व्यापक ब्रह्म श्रात्मा द्रष्टा, श्रोता, मंता आदि अवच्छेद भाव को प्राप्त हुआ है । इसी तात्पर्य से अकृत्स्न कहा है। अर्थात् अज्ञान से सो सर्व रूप ब्रह्म हा शरीरों में प्रवेश होकर अर्थात् अंत. करणावच्छिन्न होकर परिच्छिन्न संसारी जीव रूप हुआ है। इसलिये (प्रेयस्त देवपरमम्) सो प्रत्यगात्मस्वरूप सर्व प्राण पिंडसमुदाय से श्रन्तरतर परम ब्रह्म ही पुत्र से, दैव मानुष शब्दित अपर ज्ञान, सुवर्णादिक धन से स्थूल शरीर से, इद्रियों से तथा प्राणों से अतिशय प्रिय है । इस कारण प्रत्यगात्मा रूप (तत्) वह ब्रह्म ही (परमार्थत्: ) वास्तव में (अहंब्रह्मास्मि) 'मैं ब्रह्म हूं, इस प्रकार (विदितवत्) स्वात्मसाक्षात्कार करता है। भाव यह है कि मुमुतुता भी ब्रह्म को ही हुई है। शरीर में स्थित प्रमाता आदिकों का साक्षीरूप त्वंपद का लक्ष्य रूप यह प्रत्यगात्मा ज्ञान से प्रथम भी ब्रह्म ही था । फिर वही ब्रह्म अविद्या विशिष्ट रूप से अधिकारी रूप से स्थित हुआ है। अतएव, तू संसारी नहीं हैकिंतु सर्व धर्मो से रहित चिदानंद, एक रस’ ब्रह्म ही तू है ।