उसके नाश के लिये त्वंपद की अपेक्षा है और त्वंपद के
लक्ष्य में प्रतीत हुई अपूर्णता, दुःखित्व और मोह के नाश
के लिये तत्पद की श्रपेक्षा है। इस प्रकार निज अलौकिक
श्रात्तत्व के कथन में तत् त्वंपद परस्पर अपेक्षा वाले हैं।॥४३॥
(परस्मिन्) तत् पद के लक्ष्यार्थ में श्रोता को उत्पन्न हुई
(परोक्षानवाप्तत्वबुद्धिम् ) परोक्षत्व प्राप्तत्व बुद्धि के (निह
न्तुम्) नाश करने के लिये त्वं पद की अपेक्षा है। भाव यह है
कि तत् त्वं इस उपदेशके कहनेसे तत्पदके लक्ष्याथं का त्वंपद् के
लक्ष्यार्थ से श्रभेद् कहा है । सो त्वं पद् का लक्ष्य स्वस्वरूप होने
से नित्य अपरोक्त है तथा प्राप्त है इसलिये परोक्षत्व भ्रांतिकी तथा
अप्राप्तत्व भ्रांति की निवृति होजाती है। इसी प्रकार (प्रतीचि )
त्वं पद के लक्य में प्रतीत हुए (अपूर्णत्व दुःखित्व मोहम् )
परिच्छिन्नत्व, दुःखित्व रूप भ्रम के (निहंतु ) नाश करने के
लिये तत् पद् की अपेक्षा है। भाव यह है कि त्वं तत् इस उपदेश
के कहने से त्वं पद के लक्ष्यार्थ का तत्पद के लक्ष्यार्थ से अभेद्
कहा है । सो तत् पद का लक्ष्यार्थ व्यापक है तथा सुखरूप है.
इसलिये परिच्छिन्नत्व और दुःखित्व भ्रांति की निवृत्ति होजाती
है। ऐसे ही अहंब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म अयं श्रात्मा ब्रह्म इत्यादि उप
देशों से परिच्छिन्नत्वादिकों की निवृत्ति हो जाती है और ब्रह्म
श्रहं. ब्रह्म प्रज्ञानं, ब्रह्म श्रात्मा, इस उपदेश से परोक्षत्व श्रादिक
की निवृत्ति होजाती है। इस प्रकार सर्व महा वाक्यों में श्रोत
प्रोत भाव जान लेना। इसी उक्त फलके लिये ही (निजा लौकिक
चात्मतत्त्वं वक्त तृत् त्वं पदे अन्योऽन्यतः साभिलापे ) अलौ
किक निज आत्म स्वरूप के कहने के लिये परस्पर श्रपेक्षा वाले
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प्रकरण २ श्लो० ४३