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धर्म निचयं अपहाय) तत् पदार्थ और त्वं पदार्थ के निश्चित
अभेद् के विरोधी जो माया और अविद्या तथा माया और
अविद्याकृत सर्वज्ञता आदिक और अल्पज्ञता आदिक धर्म
समूह हैं, उन धर्मो को त्याग करके (तनु बुद्धि साक्षिम्) त्वं पद्
से शरीर और बुद्धि आदिकों के साक्षी चिन्मात्र भाग का ज्ञान
होता है तथा (सत्त्रअनंतचिद्घनं ) सत्य, अपरिछिन्न चिन्मूर्ति
भाग का तत् पद से ज्ञान होता है। (उपलच्य) इस प्रकार
दोनों पदों से शुद्ध भागों को लक्षणावृति से जानकर ( ततः )
अनंतर (अखंडविषये पदद्वयं घटयेत् ) लक्षण से लक्षित एक
चिन्मात्र अखंड वाक्यार्थ विषे वाक्यरूप दोनों पदों का
समन्वय करे ।॥४२॥
उपाधिकृत धम से ही चेतन का भेद है, स्वरूप से नहीं ।
अतः पूर्व उक्त प्रकारसे उपाधि और उपाधिकृत धर्मोके त्यागने
से दोनों ही पदों के लक्ष्यार्थ रूप शुद्ध चेतन की एकता है। यह
अर्थ 'सोयं देवदत्त:’ इस दृष्टांत से पूर्व कहा। अब तत् त्वं या
त्वं तत् इस प्रकार सब महा वाक्यों में वेदान्ताचाय ने तत् त्वं
पदों के लक्ष्यार्थ का परस्पर अभेद् कहा है। इस उपदेश का अब
प्रयोजन दिखलाया जाता है
भुजंग प्रयात ।
परोक्षानवाप्तत्व बुद्धिं परस्मिन्नपूर्णत्व दुःखि
त्वमोहं प्रताचि । निहन्तु निजालौकिकं चात्म
तत्वं पदे वक्त मन्योऽन्यतः साभिलाषे ।। ४३॥
तत्पद के लक्ष्य से परोक्ष और प्राप्त बुद्धि होती हैं