कर्मानाधीन, मायासे अमोहित, बंध रहित, नित्यमुक्त और परोक्ष
इतने धर्मो वाला ईश्वर चेतन तत् पद का वाच्यार्थ है। इन
दोनों में विचार कर देखा जाय तो अराजा को राजा सदृश कहने
की तरह तू ईश्वर सदृश है यह वाक्यार्थ परम विरुद्ध है। दोनों
पदार्थो में सत्यादिकों की भी सदृशता नहीं है, क्योंकि विशिष्टता
के वाचक सल्यादिकपद हैं और शुद्ध सत्यादिकों का उभयत्र विना
लक्षणा से ज्ञान ही नहीं हो सकता । और लक्षणा से ज्ञात सत्य
एक ही है और सदृश सत्य कुछ भी नहीं; क्योंकि भेद् में ही
सद्वशता व्यवहार देखा है और कुछ विशिष्ट धर्मो को लेकर
तो सर्व की सर्व में सदृशता है। इसलिये जीव को ही
ईश्वर के सदृश कहना और घटको न कहना इसमें कोई विशेष
कारण नहीं मिलता । तथा ईश्वर जीव सदृश है इस प्रकार
उल्टा कहने में भी कोई बाधक नहीं हो सकेगा । क्योंकि
जैसे तत्त्वमसि में प्रथम ईश्वरवाची तत् पद् है ऐसे ही
अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानमानंदं ब्रह्म अहंब्रह्मास्मि, इन वाक्यों में
जीव वाची पद् प्रथम हैं। और यदि सर्व वाक्यों में ईश्वर
सदृश तू है ऐसे ही वाक्यार्थ का नियम करोगे तो उक्त दोष से
यह वाक्यार्थ दूषित है । अतः महात्राक्यों में गौणीवृत्ति मानना
अपना अज्ञान प्रकट करना है ।
संभव है जीबका मुक्तिकालमें ही ईश्वर सछश रूप हो जावेगा
इस शंका का अब निरास किया जाता है । (नच भाविनः
अस्तिता) आगे होने वाले में वर्तमान का प्रयोग नहीं किया
जाता । और तत्त्वमसि महा वाक्य में प्रसिपद् वर्तमान काल
वाचक (श्रुतिहानिः अश्रुत गतिश्च न उचिता) तथा उक्त
रीति से श्रुत अर्थात् तत्पद से प्रतीयमान ब्रह्म की वर्तमानता का
श्रसिपद से त्याग करना उचित नहीं है। और अश्रुत अर्थात्
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स्वाराज्य सिद्धिः