पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१८७

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प्रकरण २ श्लो० ४१

गौणी वृति मानी है तैसे ही तत्त्वमसि महा वाक्य में भी तत्पद् गौणी धृति से तत् सद्यशलापरक होने से ब्रह्म सदृश तू है, इस प्रकार सत्यादिक गुणों की सदृशता से वाक्यार्थ बन सकता है। इस्त शांका का निरास करते हुए तत् और त्वं इन दोनों पदों में भाग त्याग लक्षणा है, यह पक्ष स्वीकार करते हैं । नतु मान सिद्धमपरं परोपमं निजरूप मस्य नच भाविनो ऽस्तिता । श्रतहानिरश्रतगतिश्च नो चितेत्युविताद्वयोरपि हि भाग लक्षणा ।।४१!!
जीव का ईश्वर के समान स्वरूप किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है, मोक्ष समय में माना जाय तो होने वाले में वर्तमान कता का भी प्रयोग नहीं होता, श्रुति की हानि श्रऔरं अश्रुतका फल उचित नहीं है, इसीसे तत् त्वं दोनों पदों में भाग त्याग लक्षणा ही उचित है ॥४१॥
( श्रस्य ) इस जीव का (निजरूपम्) प्रसिद्ध रूप से भिन्न कोई अपना रूप (परोपमं ) ईश्वर के सट्टश (न मानसिद्धम् ) किसी भी प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं होता, इसलिये त्वं तू तत् उस ईश्वर के समान है यह वाक्यार्थ नहीं हो सकता . । भाव यह है कि श्रल्पशक्ति, अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, अनीश, कर्म के अधीन अबिद्या माहित, बंधमोक्ष वाला, प्रत्यक्षता अर्थात् स्थूल सूक्ष्म संघात विशिष्ट चेतन मैं हूं अथवा अंत:करण विशिष्ट चेतन मैं हूं इस प्रकार नृित्य अपरोक्षता, इतने धर्मो वाला जीव चेतन त्वंपद का वाच्यार्थ है और सर्वशक्ति, सर्वज्ञ, व्यापक, ईश,