१७३
अभेद् अन्वय कहा जुाता है। दूसरा अध्यास अभेद् अन्वय है।
इसका उदाहरण यह है कि जैसे शुक्ति आदिकोंमें पूर्व उक्त लक्षण
अध्यास से यह रजत है ऐसी प्रतीत होती है, इसको ही अध्यास
विषयक सामानाधिकरण्य कहते हैं अर्थात् यह अध्यास अभेद्
अन्वय कहा जाता है। तीसरा विशेषण अभेद् अन्वय है। इसका
उदाहरण दंडी पुरुष इत्यादि प्रसिद्ध हैं, क्योंकि दंड रूपविशेषणा
भिन्न पुरुष के विषयक यह सामानाधिकरण्य है अर्थात् एक वस्तु
विषयक सामानाधिकरण्य है और चौथा एक वस्तु विषयक
सामानाधिकरण्य है । इसका उदाहरण बहुत प्रकाश वाला
चंद्र है वही यह देवदत्त है इत्यादि रूप से प्रसिद्ध है।
(इह्) तत्त्वमसि महा वाक्य में ( श्राद्य ' न ) बाध
सामानाधिकरण्य रूप पहला बाधाभेदान्वय पक्ष संभव नहीं:
क्योंकि (श्रुतिः व्यर्थोद्यमा स्यात्) तत्त्वमस्ति महा वाक्य
रूप श्रति निष्फल प्रयत्न वाली हो जावेगी । मोक्ष के उपाय
के उपदेश में श्रुति का उद्यम है। यदि ब्रह्म का बाध किया
जावेगा तो मोक्ष का ही बाध होगा, क्योंकि स्वरूप स्थिति
अथवा स्वस्थ ब्रह्म का नाम ही मोक्ष है। इसी कारण मोक्ष को
शास्त्रों में नित्य बतलाया है। यदि जीव का बाध किया
जावेगा तो मुमुक्ष के प्रभाव होजाने से मोक्ष के उपाय के
उपदेश का उद्यम व्यर्थ हो जावेगा अथवा बंध मोक्ष की व्यधि
करणता रूप दोष प्राप्त होवेगा, क्योंकि इस पक्षमें बंध तो जीवमें
है और जीवका बाध होजाने से मोक्ष ब्रह्ममें है । (नाध्यासधी:)
तत्त्वमसि महा वाक्य में दूसरा अध्यासधी रूप अध्यासाभेद
अन्वय पक्ष भी संभव नहीं, क्योंकि ( ध्यानादि अश्रवणात्)
'मनो ब्रह्म त्युपासीत’ इत्यादि विधिश्रोंके समान ब्रह्मत्वध्यानादिक
विधिकी.श्रुति नहीं है और कहीं पर ब्रह्मत्व ध्यान विधिकी स्तुति