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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१६१

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प्रकरण २ श्लो० २८ [ १५३


पुरुष की अभिलाषा नहीं होती। ( इति तदात्मता) इस कारण से श्रुति ने ब्रह्म को सचिदानंद स्वरूप कहा है । भाव यह है कि सूत्य आदिक पद स्वन्व विरुद्ध असत्यत्व जड़त्व आदिकों के निपेध द्वारा मी स्वलक्ष्य रूप सत् ब्रह्म में पर्यवसानवाले हैं । यदि कोई कहे कि सत्यत्वादिक अनेक होने से सचिदानंद ब्रह्म की एकरसता भंग होगी तो उसका उत्तर देते हैं कि (वारणीयविधा प्रकल्पित भेदलब्धपदैः पदैः न एकरस्य हृतिः) निषेध करने योग्य असत्य आदिक प्रकारके भेद कल्पित हैंजो भेद कल्पित हैं उन भेद वाले सत्यत्वादिक पद हैं और असत्यत्व जड़त्व आदिक निषेध्यां में उन कल्पित भेदों से उन सत्यादिक पदों को अवकाशा मिला है इसलिये उन सत्य आदिक पदों से ब्रह्म की एकरसता की हानि नहीं होती, ( हि ) क्योंकि ( तथैव साधु पूर्व अवादिपम् ) ऐसा ही हमने सम्यक रुप से पूर्व चतुर्देश । श्लोकों में कहा है ।--८।।

अब ब्रह्म की सत् चित् श्रानन्दरूपता यथा क्रम से तीन श्लोकों में श्रुतियों के अर्थ के संग्रहपूर्वक सिद्ध की जाती है। वहां प्रथम युक्ति से तथा अर्थ संगृहीत श्रुति से ब्रह्म की सत्य रूपता सिद्ध की जाती है
सत्यत्वं तस्य सौक्ष्म्यान्नभस इव जगन्नीलिमा धार भावादव्यावृत्तेरवृत्तेरखिल दृशितया सवे बाधावधित्वात् । निःसंगत्वाविरोधात् सकलगत तयाऽऽत्मत्वतः साक्षिभावादन्य द्रष्टर्निषेधात