१५२ ] स्वाराज्य सिद्धिः
निश्चय ही दो फल हैं । (लक्ष्य मत्व परेिच्छिदा त्रयवारणे )
एक तो लक्ष्य भूत ब्रह्म के सत्व का निश्चय यह फल है और
उस ब्रह्मा में देशकाल वस्तु कृत तीनों प्रकार के श्रभाव का निश्चय
यह दूसरा फल है।॥२७॥
अब तटस्थ लक्षणके फलभूत स्वरूप लच्ण को दिखाते हैं
सचिदद्वय सौख्यरूपममुष्य वास्तव लक्षण
नानृतेऽस्फुरणेऽसुखे पुरुषार्थतेति तदात्मता ।
करस्य हृतिस्तथैव हि साधु पूर्वमवादिषम् ॥२८।।
रूप लक्षण है, असत, जड दुःख रूप पदार्ध में पुरुषार्थ नहीं
है इसीसे ब्रह्म को सत श्रादि स्प कहा है । निषेध करने
योग्य जो असत्य आदि भेद करके कल्पित है इससे असत्य
श्रादि पदों की सत्यादि पदोंसे एक रसता की हानी नहीं
है जैसा हम पहले भली प्रकार से ( श्लोक १४ में ) बता
चुके हैं ।॥२८॥
(अमुष्य सचिद् अट्टय सौख्य रूप वास्तवलक्षणम्) आत्म
स्वश्य होने से विद्वत् प्रत्ययरूप इस ब्रह्म का सत्य, ज्ञान, अनंत
श्रौर श्रानंदरूप स्वरूप लक्षण है, क्योंकि (श्रनृते अस्फुरणे
श्रसृग्वे पुरुषार्थता न ) सत्य से तथा सुख से भिन्न वस्तु में