प्रकरण २ श्लो० २३ [ १४३
सूक्ष्म के सहित यह सर्व ही जगत् (ब्रह्मणो द्विविधं रूपम्)
ब्रह्म का ही दो प्रकार का रूप है इस विभाग से (प्रकल्प्य)
अध्यारोप करके अर्थात् वस्तु में अवस्तु की कल्पना रूप अध्या
रोप करक ( श्रथ ) मूर्तामूर्त विभाग कल्पना के अनंतर (नेति
नेति) यह नहीं, यह नहीं, इस प्रकार वार वार कह कर
(अशेषतः) संपूर्ण रीति से (रूपम्) मूर्तामूर्त लक्षण दोनों
प्रकार के रूपका (निषिध्य) निषेध करके (आदिशन्ती ) मूत
मूर्त, तद्वासनात्मक अविद्या और तत्कार्य रूप सर्व आरोप के
निषेध के अवधी रूप अधिष्ठान ब्रह्मविन्मात्र का उपदेश करती
हुई ( अद्वयं अशेषयत् ) ब्रह्म की अद्वैत रूपता ही शेष
रखती है ॥२२॥
श्रब सामवेद के छांदोग्योपनिषत् का भी अद्वैत चिन्मात्र
ब्रह्म में ही तात्पर्या है यह अर्थ दिखलाया जाता है
यत्प्रबोधवशादशेषमिदं जगद्विदितं भवेत्
तद्विवत्कुमुपक्रमोऽत्र सदेव सोम्य गिरा ततः ।
स्मृष्टिरीक्षण पूर्विका जगतस्तदेक्य विवक्षया
मृत्तिकादि निदर्शनानि तथाहि संगति
माप्नुयुः ॥२३॥
जिसके बोध से संपूर्ण जगत् जाना जाता है, जिसको
कहने के लिये श्रुति में, हे सोम्य, यह उत्पत्ति के प्रथम
सतत्वप ही था’ इस वाक्य से उपक्रम करके ईक्षणापूर्वक
जगत् की उत्पत्ति कही है, जगत् की उस ब्रह्म के साथ