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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१५०

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प्रकरणं १ श्लो० ३

स्वाराज्य सिद्धिः}}


हुआ अर्थात् उसकी सर्व कामनाओं की निवृत्ति होकर (अमृतः अभवत्) वह मरण से रहित होजाता है। इस प्रकार कहते हुए ऐतरेयोपनिषत् का स्पष्टतया अद्वैत ब्रह्म में ही तात्पर्य है।॥२१॥

श्रब बृहदारण्यकापान्नषत् का भा श्रद्वत ब्रह्म म हा तात्पय है यह अर्थ दिखलाया जाता है
स्थूल सूक्ष्मविभागिमूर्तममूर्तमित्यखिलं जगत्। ब्रह्मणो द्विविधं हि रूपमिति प्रकल्प्य विभा गतः । आदिशन्त्यथ नेति नेति निषिध्यरूपम शेषतः काण्ववाजसनेयक श्रुतिरप्यशेषयद द्वयम् ॥२२॥

काएव और वाजसनेय श्रुति स्थूल सूक्ष्म विभाग करक मृत श्रार श्रमूत सपूण प्रकार का जगत् ब्रह्म का हा स्वरूप है ऐसे विभाग की कल्पना करती है । फिर श्रागे ‘यह नहीं यह नहीं' कहकर निषेध करके निषेध की अवधि स्वप श्रद्वय ब्रह्म का उपदेश करती है ॥२२॥
बृहदारण्यकोपनिषत् के मूर्तामूर्त ब्राह्मण के 'द्ववाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामूर्त च' इस वाक्य में पृथिवी, जल. और अग्नि यह तीनों स्थूल भूत मूर्त शब्द का अर्थ है और वायु आकाश यह दोनों सूक्ष्म भूत अमूर्त शब्द का अर्थ है । (इतिकाण्ववाज सनेयक श्रुतिः अपि अखिलं जगत्) इस प्रकार काएवशाखा की तथा माध्यन्दिन शाखा की श्रुति मूर्त तथा अमूर्त इस स्थूल