१२४ ] -- *** • • • • • • • • • • • • • • स्वाराज्य सिद्धि • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • विरह दोष प्राप्त होंगे । समवाय संबंध की नित्यता ‘अतोऽन्यदा र्तम्’ इत्यादिक श्रुतियों से बाधित है। इस प्रकार के दोषों वाले समवाय का स्वीकार न होने से वह समवाय भी कार्यकारण का भेद सिद्ध नहीं कर सकता और कार्य कारण के परमार्थ भेद पक्ष में कारक संबंध की निष्फलता रूप दोष भी प्राप्त होता है । (नो चेत्) कटक आदि कार्य यदि स्वर्ण आदि उपादान रूप नहीं हैं ऐसे दृढ़ है तो (स्वर्णादिकायें) स्वर्ण आदिकों के कार्य कटक आदिकों में (मूल्य वृद्धि प्रसंग:) स्वणदि रूप कारण के मूल्य से द्विगुणा मूल्य प्राप्त होगा |- अर्थात् स्वर्ण के मूल्य से कटक कुडल का मूल्य द्विगुणा होवेगा क्योंकि (द्विगुणा गुरुतया) कारण की गुरुता तथा कार्य की अपनी गुरुता इस प्रकार कार्य में कारण से द्विगुणा गुरुत्व है । भाव यह है कि इस भेदवादी के मत में कारण का और कार्य का भेद हैं इस कारण से गुरुत्वादि गुणों का भी भेद ही है। श्रौर कारण के गुण कार्य द्रव्य में अपने सदृश गुणों का प्रारंभ करते हैं इस न्याय से कार्य द्रव्य में कारण की गुरुत्वता के समान ही गुरुत्वान्तर उत्पन्न होकर कारण से कार्य का परि माण द्विगुणा होगा । इसलिये कार्य का मूल्य कारण के मूल्य से द्विगुणा होना चाहिये । कार्य कारण के अत्यन्त अभेद पक्ष में भी ( अवस्थाभेदात्) कटक कुडल आदि रूप अवस्था परिमाण भेद से (विभेदे) कनक स्वरूप के भेद मानने पर (स्थिति गति भिद्या) गति की निवृत्तिरूप स्थिति और गम नादि रूप गति अवस्था के भेद से (नराश्च ) नर भी अर्थात् मनुष्य भी (भेदिनः) भेद वाले हो जावेंगे । भाव यह है कि प्रतिश्रवस्था से देवदत्त का भेद होने में जन्म मरण हेतुक
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