प्रकरण २ श्लो० १० [ १२३ (कार्य' निदानात् अन्यत् न ) कटक कुंडल आदिक कार्य सुवर्णरूप उपादान कारण से स्वरूप से भिन्न नहीं है, क्योंकि (पृथक् अनधिगमात्) उन कटक आदिक कार्यो को सुवर्ण रूप उपादान कारण से भिन्न रूप से दिखलाने को कोई भी कार्य कारण का परमार्थ भेदवादी समर्थ नहीं है । (तथात्वे ) कार्य का कारण से भेद होने पर (हेि) जिस कारण से (उपादानहेत्वोः वैलक्षण्यं न) उपादान हेतु की विलक्षणता अर्थात् विशेषता नहीं होगी और उपादान हेतु में अपने से अभिन्न कार्य उत्पादकत्व रूप वैलक्षण्य विद्यमान है। शंका-समवाय ही कार्यकारण का भेदक ' है । समाधान-(अनुपेतात् समवायात् ) आत्माश्रयादिक दोष ग्रस्त होने से सिद्धांत में अस्वीकृत समवाय से भी (व्यवस्था न भवति) कार्यकारण के भेद की अर्थात् कार्य के उपादान कारण से परमार्थ भेद की व्यवस्था नहीं होती । अंर्थ यह है कि परमत में स्वीकार किया हुआ समवाय भी संबंधियों से भिन्न ही मानना होगा इसलिये वह समवाय भी संबंधियों का समवाय संबंध का ही आश्रय करेगा । श्रात्माश्रय दोष के भय से प्रकृत संमवाय से वह समवाय अन्य ही मानना पड़ेगा और दूसरा भी समवायरूप होने से समवाय अपने संबंधियों में समवाय से ही रहेगा। अब यह दूसरा समवाय यदि प्रकृत प्रथम समवाय से अपने संबंधियों में रहेगा तो अन्योऽन्याश्रय दोष प्राप्त होगा और इस दोष के भय से मानोगे तीसरा समवाय तो चक्र का दोष प्राप्त होगा और चौथा मानोगे तो आगे आगे धारा की विश्रांति न होने से श्रनवस्था दोष प्राप्त होगा । जिस समवाय में जाकर विश्रांति होगी वहां प्राग्लोप और िवनिगमना
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