पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

११८ ] ____ _ _____________ _____________०० ०० ० ००० स्वाराज्य सिद्धि ००० ००० ००० ००० ० ० ० ० ० ० ०० ० ००० ००० ००० ० ० ० वाक्य तात्पयदूरा ! माना भावा न मान न च पुनरपर मान्नमस्या तथाप प्रत्यक्षा स्वाप्न माया नगरमिव भवेत्साधु सैषा मृषेत्र ॥८॥ संयोग आदि संबंध की अयोग्यता से भेद इन्द्रियों का विषय नहीं है, असंगता की प्राप्ति नहीं है, सादृश्य भी नहीं है, वाक्य तात्पर्य से दूर है, उपलब्धि अनुपलब्धि प्रमाण महीं है और इसके लिये कोई अन्य प्रमाण भी नहीं है तो भी भ्रांति से यह भेद स्वप्न के अथवा माया के नगर के समान प्रत्यक्ष अवश्य है तो भी वह मिथ्या ( भिदा ) भेद (इन्द्रियाणां गोचरो न भवति ) इन्द्रियों का विषय नहीं है, क्योंकि (संयोगादेः श्रप्रयागात् ) संयोग आदिक संबंध की योग्यता ही नहीं है। भाव यह है, भेद को अवस्तुत्व आदिक हेतुओं से सर्वथा संबंध की योग्यता का अभाव है, इस कारण प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय भेद नहीं है। अर्थात् भेद के साथ जब इन्द्रियों का संबंध ही न होगा तब भेद को प्रत्यक्षता कैसे हो सकती है ? और विना ही इन्द्रियों के संबंध से भेद को प्रत्यक्ष मानोगे तो सर्व प्राणियों को विना ही प्रयत्न से सर्व ज्ञता प्राप्त हो जावेगी और अनुमान आदिक प्रमाणों को निष्फ लता प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि प्रत्यक्ष में अनुमानादिकों की प्रवृत्ति नहीं होती है और न मानी ही है। (श्रममंगतायाः व्याप्ति र्न) अनुमा प्रमाण का भी भेद विषय नहीं है, क्योंकि कहीं