पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/५९

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( पचास ) छिड़ा तब देशभक्ति के लिये प्राणपण से समर्पित इस अनन्य सेनानी को प्रतीत हुआ कि गान्धी जी की अहिंसक नीति भारत को स्वतन्त्रता नहीं दिला सकेगी और यदि इस युद्ध का अवसर जाता रहा तो अनन्त काल तक ऐसा सुयोग कठिनाई से प्राप्त हो सकेगा। अत: अंग्रेज सरकार की आंखों में धूल झोंककर पहले पश्चिम में हिटलर से और बाद में जापान से मिलकर युद्ध के द्वारा देश को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न किया जबकि उद्योग सफल होने जा रहा था इस वीरवर का करुण अन्त हो गया। यतीन्द्र विमलचौधरी ने सुभाष चन्द्र की इसी वीरता का चित्रण सुभाषसुभाषम् नामक नाटक में किया है। (ऊ) राजेन्द्र प्रसाद स्वतन्त्रता संग्राम के उच्चकोटि के नेताओं में एक थे। उनकी अध्यक्षता में भारत का संविधान बना और वे ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उनके जीवन चरित्र को लेकर यतीन्द्र विमलचौधरी ने भारत राजेन्द्र नामक नाटक की रचना की। इसमें नमक सत्याग्रह, हिन्दू मुस्लिम एकता इत्यादि क्षेत्रों में उनके योगदान और राष्ट्रपति पद पर उनके निर्वाचन का चित्रण किया गया है। () देशबन्युः देशप्रिय:- नामक नाटक यतीन्द्र विमल चौधरी की रचना है। इसमें देशबन्धु चित्तरंजन दास की गौरवगाथा का चित्रण किया गया है। (ऐ) कैलासनाथ काटजू की जब बंगाल के राज्यपाल के पद पर नियुक्ति हुई थी। तब उनके स्वागत समारोह में कैलासनाथ विजय नामक नाटक की रचना एवं अभिनय किया गया था। इसकी रचना जीवन्यायतीर्थ ने की थी। स्वतन्त्रता के आन्दोलन में महिलायें भी पीछे नहीं रहीं। इस विषय में दो नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है- (क) वीरभा- यह लीलाराव दयाल की रचना है जिसमें एक युवती की देशभक्ति का चित्रण है जिसने यौवनजन्य सुख भोग को छोड़ दिया और सत्याग्रह संग्राम में कूद पड़ी तथा आन्दोलन की नेत्री बन गई। (ख) इन्हीं की दूसरी कृति कटुविपाक जिसमें एक ऐसे प्रशासकीय अधिकारी के मनस्ताप का चित्रण किया गया है जिसकी पुत्री सत्याग्रह में शहीद हो गई। ये दोनों नाटक काल्पनिक घटनायें हैं जो तत्कालीन सी समाज के सत्याग्रह में योगदान का चित्रण करती हैं। स्वातन्त्र्योत्तर समस्याओं पर नाटक स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वभावत: नये प्रकार की समस्याओं ने जन्म लिया। इन समस्याओं पर भी साहित्य रचना हुई है। संस्कृत में विभिन्न विधाओं में लिखे गये साहित्य के साथ कतिपय नाटक भी इस दिशा में प्रकाश में आये हैं जिनमें कतिपय निम्नलिखित हैं (अ) पहली समस्या तो विभाजन की ही थी। चिरन्तन काल से भारत का जो स्वरूप चला आ रहा था उसका विभाजन कर देना निस्सन्देह एक अभूतपूर्व घटना थी जिसे सहसा सह लेना सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं था। एक आघात लगा यह