पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/४८

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( उन्तालीस ) को उन बुराइयों से दूर करने की चेष्टा की जाती है जबकि भारतीय ठद्देश्य आदर्श चरित्र दिखलाकर उसी प्रकार का चरित्र बनाने का प्रयत्न करना माना जाता है। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि भारतीय सुखान्तिकाओं को ‘कमेडी’ कह कर जो गर्हणा की जाती है वह भी पक्षपातपूर्ण विचार ही है। भारतीय नाटक पाश्चात्य कमेडी जैसे हास परिहास प्रधान नहीं होते। उनमें जीवन्त गम्भीर तत्वों का पर्याप्त समावेश होता है। संघर्ष की उनमें कमी नहीं होती। किन्तु सङ्घर्ष मध्य में दिखलाया जाता है जिसका परिणाम अच्छे पक्ष की विजय के द्वारा आनन्द में होता है। महाभारत का जैसा संघर्ष विश्व साहित्य में शायद ही कहीं देखने को मिले। यह कहना सर्वथा दुस्साहस होगा कि रामायण में संघर्ष नहीं है। यह बात अवश्य है कि भारतीय नाटकों में एक मात्र संघर्ष ही उद्देश्य नहीं होता। कोई भी समस्या नाट्य प्रवर्तक हो सकती है। भारतीय नाटकों में यूनानी नाटकों के समान चरित्र चित्रण की प्रधानता नहीं होती और न चरित्रचित्रण उसका उद्देश्य होता है। यहां रस निष्पत्ति और रसास्वादन नाटक का उद्देश्य होता है। इसीलिये ज्ञात चरित्र वाले पात्रों से सम्बन्धित नाटक सर्वातिशायी माने जाते हैं, क्योंकि उनके चरित्र पहले से विद्यमान दर्शक भावना को आस्वाद्य बनाने का सरल साधन हैं। कौतूहल वृत्ति की प्रधानता वाले नाटक इतने उच्चकोटि के नहीं माने जाते । सारांश यह है कि जब ठद्देश्य में भेद जब फल में भेदजब प्रक्रिया में भेद तब एक दूसरे के अनुकरण से उद्भव के सिद्धान्त को मानना किसी प्रकार समचीन नहीं कहा जा सकता। वैसे कला के क्षेत्र में आदान प्रदान स्वाभाविक ही है। गेटे ने अपनी कृति काष्ट लिखने में प्रस्तावना की योजना में अभिज्ञानशाकुन्तल की प्रस्तावना से प्रेरणा प्राप्त की। सेक्सपियर के नाटकों के साथ इस प्रकार की समानताओं पर पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान गया है। इस प्रकार का आदान प्रदान अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। इस विषय में मैक्डानल का कथन है- ‘दूसरी बात यह है कि सबसे पुराने संस्कृत नाटकों की विद्यमानता में यूनानी काल से ४०० वर्ष का व्यवधान है। भारतीय नाटक का पूर्णरूप से स्वराष्ट्रीय विकास हुआ है और यद्यपि उसका प्रारम्भ अन्धकार के आवरण में ढका हुआ है फिर भी उसकी अपने देश में ही उत्पत्ति की व्याख्या सरलता से की जा सकती है। राजाश्रय इस काल की कविता (नाटक) को दरवारी काव्य की संज्ञा दी गई है। कारण यह है कि इसका काव्य और नाट्य राजा लोगों के आश्रय में ही पनपा है। राजा लोग कवियों को आश्रय देने में गौरव का अनुभव करते थे। कविता सुनने और नाटक देखने का उन्हें शौक था। भरत ने लिखा है नाटक में दी जाने वाली पताका का अन्तिम निर्णय राजा लोग ही करते थे। इसका आशय यह है कि राजा लोगों से इतना प्रवीण होने की आशा भी की जाती थी। अनेक राजा स्वयं कवि हुये हैं; अनेक राजाओं ने नाटक भी लिखे हैं। ऐसे भी उल्लेख पाये जाते हैं कि राजा लोग पुष्कलधन देकर कवियों की रचनाओं