पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१८

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( नौ ) की पूजा के स्थान पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा प्रचलित हो गई और नाट्यकला में इन्हीं त्रिदेवों का प्राधान्य हो गया। इनमें प्रमुख स्थान कृष्ण को प्राप्त हुआ। विष्णु पुराण और श्रीमद्भावगवत में कृष्ण लीला के अन्तर्गत रास पञ्चाध्यायी में इस वास्तविकता के दर्शन होते हैं। श्रीमद्भावगवत में कथा इस प्रकार है ‘शरत् काल था; मल्लिकायें खिली हुई थीं; उद्दीपक वेला थी उसी समय प्राची दिशा के मुख को लाल करिणों से रंगता हुआ चन्द्रोदय हो गया। कृष्ण ने रमण की इच्छा से सुमधुर वंशी बजाई जिसमें मानो कामदेव का बीजमन्त्र ही बँक दिया हो । उस वंशी की ध्वनि से आकर्षित होकर झुण्ड के झुण्ड रमणियां अपना गृह कार्य छोड़ कर कृष्ण के पास एकान्त में जा पहुंची। पहले तो कृष्ण ने उन्हें सदाचार का उपदेश दिया फिर उनका विशेष आग्रह देखकर नृत्य करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ समय नृत्य चलता रहा फिर अवसर देखकर युवतियों में कामदेव ने प्रवेश किया। कृष्ण यह देखकर एक गोपी को लेकर अन्तध्र्यान हो गये। (सम्भवतः यह गोपी राधा थी) उस गोपी को अपने सौभाग्य पर गर्व हुआ उसने थक जाने का बहाना किया। तब कृष्ण ने उसको कन्धे पर बैठने के लिये कहा और जब वह कन्धे पर बैठने की चेष्टा ही कर रही थी कि कृष्ण वहाँ से अन्तध्र्यान हो गये। इधर गोपियां कृष्ण को तलाश करती हुई भटक रही थीं। उसी समय वह गोपी भी आकर उनसे मिल गई। अब गोपियों ने मिलकर कृष्ण लीला का अभिनय प्रारम्भ कर दिया। एक गोपी कृष्ण बनी दूसरी पूतना, एक गोपी शकटासुर बनी दूसरी कृष्ण। इस प्रकार सभी गोपियां कृष्ण लीला का अभिनय करने लगीं। उसी अभिनय के बीच में मुस्कुराते हुए कृष्ण ने प्रवेश किया। वेदेतर साहित्य और नाटक व्याकरण पाणिनि ने दो नटसूत्रकारों का उल्लेख किया है- शिलाली और कृशाश्व ।' शैलानि ब्राह्मण के नाम पर एक वैदिक शाखा भी बतलाई जाती है। सम्भवतः यही शिलाली है। जिन्होंने नटसूत्रों की रचना की। एबी. कीथ का कहना है कि पाणिनि के समय के नटसूत्रकारों पर अविश्वास इसलिये होता है कि पाणिनि ने 'नटसूत्र' शब्द का तो प्रयोग किया है। नाटक शब्द का प्रयोग नहीं किया। पाणिनि के पास नाटक वाचक कोई शब्द है ही नहीं। दूसरी बात यह भी है कि भरत ने पाणिनि का उल्लेख नहीं किया है और न शिलाली एवं कृशाश्व के बारे में कुछ कहा है। किन्तु ये दोनों एतराज विचित्र हैं। पाणिनि नाट्यशास्त्र की नहीं शब्दशास्त्र की रचना कर रहे थे। शिलाली और कृशाश्व शब्दों से उनके सूत्रों के अध्येताओं के लिये शैलालिन और ‘कृशाश्विनः इन शब्दों की रचना में कुछ विलक्षणता हैं ‘शैलालिनःमें '३' को वृद्धि होती है 'कृशाश्विनःमें 'ऋ' को वृद्धि नहीं होती। इस १. (पराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनट-सूत्रयोः ४..११० कर्मन्दकृशाश्वादिनिः ४.३.१११)