( आठ ) सुदास के शत्रुओं में सर्वधिक शक्तिशाली भरत लोग थे। विश्वामित्र ने अपनी प्रार्थनाओं से विपाशा नदी के जल में त्रित्सुओं द्वारा उतरने योग्य बाँध बना दिया था। बाद में त्रित्सुओं के सहायक पुरोहित वशिष्ठ हो गये और भरत लोगों का साथ विश्वामित्र ने दिया। इसी प्रसंग में वशिष्ठ और विश्वामित्र एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन गये। युद्ध में वशिष्ठ की मन्त्रणा से संरक्षित त्रित्सु लोग विजयी हुये थे। विश्वामित्र के पूर्वज कुशिक भरतों से निकट रूप में संबद्ध थे। भरतों का यही प्रदेश ब्रह्मावर्त और कुरुक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। दस राजाओं के संगठन ने परुष्णी को पश्चिम की ओर से पार करने का प्रयत्न किया था जिसको त्रित्सुराज सुदास ने ५ राजाओं के सहयोग से रोका था। सुदास के सहयोगियों का उल्लेख नहीं किया गया है। सम्भवतः स्ॐय उनके सहयोगी थे। ऋग्वेद में पाश्चालों का उल्लेख नहीं है। कुरुओं का भी प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं पाया जाता । महाभारत का युद्ध कुरु पांशाल युद्ध ही कहा जाता है। ये दोनों जातियां अत्यन्त प्रतिष्ठित हैं। इन जातियों का उत्थान बाद में हुआ। ऋग्वेद की महत्वपूर्ण जातियां त्रित्सु, तुर्वश इत्यादि बाद में लुप्त हो गई। ऋग्वेद काल की कई जातियां या तो दूसरे नाम से प्रसिद्ध हो गई या उनका समावेश दूसरी जातियों में हो गया। ऋग्वेद में भरत और कुरु पृथग् जातियां जो महाभारत काल तक आते आते एक हो गई और उनके नाम पर ही कुरुराज्य की स्थापना हुई। यह भी असम्भव नहीं है कि त्रित्सुओं का विलय भी कुरुराज्य में हो गया हो। पाञ्चाल का निर्माण भी अनेक जातियों के मिलन से बना था। पाश्चल का अर्थ ही है ५ जातियों के मेल से बनी जाति । वैदिककाल की कुछ जातियाँ महाभारत काल तक स्वतन्त्र सत्ता बनाये रहीं जिनमें उशीनर सृञ्जय, मत्स्य और चेदि प्रमुख हैं। महाभारत काल तक यदु जाति यादव रूप में अपनी सत्ता बनाये रही जिसमें कृष्ण का अवतार हुआ था। ऋग्वेद में जातीय संघर्षों का उल्लेख किया गया है। यदि विचारकों के इस कथन में सत्य का अंश है कि ऋग्वेद के अनेक सूक्त नाटकों के गीतों से लिये गये हैं तो हो सकता है कि क्षेत्र की और इस काल की कतिपय नाट्यकृतियां विद्यमान रही हों जिनमें आये हुये गीतों का सूक्तों के रूप में इस संकलन में समावेश कर दिया गया हो। विण्टरनित्ज ने स्वीकार किया है कि अन्य देशों की भांति भारत में भी नाटक की गहरी जहुँ धार्मिक सम्प्रदाय में गड़ी हुई हैं। वैदिक कर्मकाण्डविधि में ऐसी अनेक व्यवस्थाओं का वर्णन किया गया है जिनको सीधे तौर से नाटक का एक प्रकार माना जाता है। वैदिक काल के बाद नाटक का सम्बन्ध इन्द्रध्वज महोत्सव से जुड़ गया। यह उत्सव वर्षाकाल की समाप्ति के बाद मनाया जाता था। सम्भवतः यह उत्सव उसी समय होता था जिस समय हम आजकल दीवाली का उत्सव मनाते हैं। कृष्ण का इन्द्रपूजा को हटाकर गोवर्धनपूजा स्थापित करना इसी तथ्य की ओर संकेत करता है। इसके बाद इन्द्र १. (उक्त विवरण मैक्डानल के आधार पर लिखा गया है ।
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