एवमुक्तः श्रीनिवासस्तदस्थिनिचयं नृप । कराभ्यां प्रतिगृह्याथ स्वोत्तरीये बबन्ध ह ।। १४६ ।। स्वासिपुष्करिणी यत्र तस्य पूर्वदिशि स्थितम् । पाण्डुतीर्थं समासाद्य तस्य तीरमुपागतः ।। १४७ ।। तत्र किचिद्देवखातमासाद्य मधुसूदनः । तोण्डमानं च तत्पुत्रं त्यक्त्वा तीर्थमुपागतः ।। १४८ ।। अस्थीनि तत्र निःक्षिप्य शिलायां तीर्थसन्निधौ !। १४९ ।। प्रक्षाल्य विष्णुः स्पर्श स्वाञ्जलिक्षिप्तवारिणा । जीवनं सन्निपतितं तदस्थित्चिये तदा ।। १५० ।। इति ते जीविता विष्णोः पाणिस्पर्शप्रभावतः । राजा बोले-हे हरि ! भरे हुओं की अस्थिको पुत्र ले आया है । हे कृष्ण ! जिस प्रकार वे जीवित छोो सो दीजिये । हे राजन ! ऐसा कहे जातेपर श्रीनिवासने उस अस्थिसमूहको हाथसे ले अपने उत्तरीय (चादर) में बांध लिया और जहाँपर स्वामिपुष्करिणी है उसके पूर्व दिशामें अवस्थित पाण्डुतीर्थको आकर, उसके तीरपर एक देवताओंका कुभां पाकर और तोण्डमान एवं उनके पुत्रको छोड़ कण्ठपगन्त जलमें स्नात किया । तीथैके समीपही शिलापर अस्थियोंको रखकर विष्णुवे अपनी अञ्जलीमें रखे हुए जलसे उसको धोकर स्वर्श किया और तत्काल ही उस अस्थि समूहमें जीवन आ गया, श्रीविष्णुके हाथ थके स्पर्शले वे जी गये । ववृषुः पुष्पवर्षाणि तत्तीर्थो वासवादयः ।। १५१ ।। विस्मेरचित्ताः सर्वेऽपि दृष्टतत्तीर्थवैभवाः । यदा तीर्थप्रभावेण जीविता मृतकाश्च ते ।। १५२ । (१५९)