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श्रीविष्णुगीता।


अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन् दैत्यसूदन !।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ १५० ॥

महाविष्णुरुवाच ।। १५१ ॥

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ १५२॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृताम्वराः ! ॥ १५३ ॥
ओतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ १५४ ।।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ १५५ ॥


अधियज्ञ कौन है और कैसे वह इस देहमें स्थित है और हे दैत्यसदन ! आप मरणकालमें संयतात्मा व्यक्तियों के द्वारा कैसे जानेजाते हैं ॥ १४६-१५० ॥

महाविष्णु वोले ॥१५१ ॥

परम जो अक्षर ( जिसका क्षय नहीं है अर्थात् जगत्का मूल कारण) वही ब्रह्म है, स्वभाव ही (आत्मभावही) अध्यात्म कहा जाता है, भूतभावोद्भवकर अर्थात् सकल प्राणिमात्रकी उत्पत्ति और स्थिति करनेवाला जो विसर्ग अर्थात् त्याग है वही कर्म है ॥ १५२॥ देहधारियों में श्रेष्ठो! नाशवान् भाव ( देहादि ) अधिभूत है पुरुष (स्वांशभूत सब देवीशक्तियोका अधिपति) अधिदैव है और इन शरीरों में मेैं ही अधियज्ञ (कूटस्थ चैतन्य ) हूँ ॥१५३ ॥ ओंतत्सत, ये तीन ब्रह्मके नाम है, इन तीनोंके द्वारा पूर्वकालमें ब्राह्मण वेद और यज्ञोंकी सृष्टि हुई थी ॥ १५४ ॥ इसी कारण ओंम, यह शब्द उच्चारण करके ब्रह्मवादियोके विधानोक्त ( शास्त्रोक्त) यज्ञ दान और तपरुप कर्म्म निरन्तर सम्पन्न हुआ करते हैं ॥१५॥